SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६, वर्ष ३१, कि०२ अनेकान्त प्राचार्य बसुनन्दी ने अपने श्रावकाचार में पद्मनन्दि का पृथक्-पृथक् कोई फल नहीं बतलाया है किन्तु वसुसे भी मागे कहा है नन्दी ने पूजा के समय जल आदि चढाने का फल इस कथंभरिदलमेते जिणभवणे जो ठवेह जिणपडियं । प्रकार बतलाया है--- सरिसवमेत पि लहइ सो णरो तित्थर पुण्ण ।। पूजा के समय जलधारा छोड़ने से पापरूपी मल धुल अर्थात् जो कुथुरि के पत्र बराबर जिन मन्दिर बनवा जाता है और चन्दन चढ़ाने से पूजा करने वाला भगवान् कर उसमें सरसों के बराबर भी जिनप्रतिमा की स्थापना होता है । अक्षन से पूजा करने वालनिधि और १४ करता है वह मनुष्य तीथंकर पद के योग्य पुण्यबन्ध रत्नो का स्वामी होता है। पुष्प से पूजा करने वाला करता है। मनुष्य कामदेव तुल्य होता है। नैवेद्य को चढाने वाला मानव अति सुन्दर होता है। दीप से पूजा करने वाला मन्त मे कहते है मनुष्य केवलज्ञानी होता है । पूष मे पूजा करने वाला नर एयारसंगधारी जीहसहस्सेण सुरवरिदो वि । निर्मल कोनि को प्राप्त करता है, और फल गे गुना करने पूजाफलं ण सक्को णिस्सेस वणिउ जम्हा ।। वाला मनुष्य निर्वाण सुख को प्राप्त करता। अर्थात् ग्यारह अग के धारी मनि तथा देवन्द्र भी हजार प: प्राशावर नी ने इस विषय में सासार वर्मामृत । जिह्वा से पूजा के फल को पूरा वर्णन करने में समर्थ निखा है-- नही है। प्राचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डधावकाचार में पूजा वार्धारा रजम अगाय पदयो मम्यक् प्रयुवनातः, के माहात्म्य को इस प्रकार बतलाया है - सद्गन्ध. तनुमौ भाव विभवाच्छेदाय गत्यक्षाः । यष्टः स्रग्दिवि स्रजे चहरुमास्वाम्याय दीपस्त्यिप, महच्चरणसपर्यामहानुभाव महात्मनामवत् । भेक: प्रमोदमत्तः कुसुमेन्नैकेन राजगृहे ॥ धूपो विश्वदृगुत्सवाय फलमिष्टार्थाय चार्घाय सः ।। पनि राजगह नगर में हर्ष से पानन्दित मैंढक ने एक अर्थात् प्रहन्त देव के चरणों मे जल की धारा चढाने से पप के द्वारा भव्य जीवो को अरहन्त भगवान् के चरणो पापों का शमन होता है, चन्दन चढ़ाने मे शरीर सुगन्धित की पजा के माहात्म्य को बतलाया था। तात्पर्य यह है होता है, अक्षत स अविनाशी ऐश्वर्य प्राप्त होता है, पुष्पकि जिस समय भगवान महावीर का समवशरण राजगृह माला चढाने से स्वर्गीय पुष्पो की माला प्राप्त होती है. से प्राया हना था उस समय राजा श्रेणिक आदि नगर के नैवेद्य के अर्पण से पूजा करने वाला लक्ष्मी का स्वामी लोग भगवान की वन्दना के लिए गये। उस समय होता है, दीप से शरीर की कान्ति प्राप्त होती है, धूप से तक भी धर्म की भावना से प्रेरित होकर मुख मे परम सौभाग्य प्राप्त होता है, फल के चढ़ाने से इष्ट अर्थ एक कमलपण लेकर भगवान की पूजा के सिए चला। की प्राप्ति होती है और अर्घ के चढ़ाने से मूल्यवान पद इसी बीच वह मेढक राजा श्रेणिक के हाथोके पैर से कुचल प्राप्त होता है। भाव संग्रह में इसी प्रकार का फल बतकर मर गया और पूजा करने की पवित्र भावना के कारण लाया गया है। जितपण्य के प्रभाव स सौधर्म स्वर्ग मे ऋद्विधारी उपर्यक्त विवेचन से प्रतीत होता है कि प्राचार्य वसुदेव हमा, मोर तत्काल ही वह मुकुट के अग्रभाग मे नन्दी, प. प्राशाधर प्रादि के समय में जलादि द्रव्यों के मेंढक का चिह्न बनकर भगवान् के समवशरण मे पा चढ़ाने का फल प्रायः सौभाग्य-सूचक वस्तुनों की प्राप्ति गया। इस प्रकार उसने सबके समक्ष पूजन के माहात्म्य था। किन्तु दूसरे प्राचार्यों के मत से उस समय भी पूजा को प्रकट कर दिया। के फल मे पूर्ण माध्यात्मिकता रही होगी। उसी के अनुप्रष्ट द्रव्य से पूजन करने का पृथक्-पृथक् फल सार पं० माशाघर के बाद की पूजामों में जन्म, जरा सोमदेव ने बलादि प्रष्ट द्रव्य से पूजा करने मोर मृत्यु के विनाश के लिए जल, संसार ताप के विनाश
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy