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________________ देवपूजा और उसका माहात्म्य के लिए चन्दन, अक्षय पद की प्राप्ति के लिए प्रक्षन, जिनेन्द्र देव की पूजा से भौतिक सुख की कामना करना काम बाण के विनाश के लिए पुष्प, क्षुधारोग के नाश के ठीक नही है। लिए नवेद्य, मोहान्धकार के नाश के लिए दीप, प्रष्ट कर्मों इस प्रकार जिनपूजा के माहात्म्य तथा फल को जानके नाश के लिए धूप और मोक्ष फल की प्राप्ति के लिए कर प्रत्येक गृहस्थ को यथाशक्ति देवदर्शन, पूजन पौर फल चढ़ाने का विधान किया गया है। पूजा करने का स्वाध्याय प्रवश्य करना चाहिए। इसी में मानव जीवन यही वास्तविक फल है जो पूर्णरूप से प्राध्यात्मिक है। की सफलता है। 400 (पृ० ४० का शेषांश) मीच कर । इसमे विवेक को सम्भावना तो कदाचित ही देव-देवियां न केवल राग-द्वेष से प्रोत-प्रोत होती है. हो, भावना भी अपर्याप्त ही दिखती है; और जो दिग्वता प्रत्युत किसी भी दशा में चतुर्थ गुणस्थान से प्रागे नहीं है वह है लोकलाज, प्रधानुकरण पोर अन्धकारमय बढ़ सकती उनकी उपासना चौदहवें गुणस्थान तक अर्थात भविष्य की विभीपिका । इसी प्रकार, व्रत, तप प्रादि के उसी पर्याय में मोक्ष तक प्राप्त करने का भधिकारी पाचरण में भी विवेक का पुट कम ही रहा दिखता है। मानव करे, यह शास्त्रीय दृष्टि से तो अवैध है ही व्यावकिसी वरदान, प्रमो, निधि आदि की प्राप्ति के लिए हारिक दृष्टि से भी प्रसगत है। साहित्य में उपयुक्त अनेक धर्मस्थान, श्मशान, वन प्रादि मे जाकर उपवास करना', विषम स्थितियों के जो चित्रण, अधिकांश यथोचित चित्रणो विभिन्न प्रकार के तप करना प्रादि धर्मविरुद्ध प्रनियों के मध्य बिम्बरे मिलते है उनका कारण किसी हद तक के पीछे विवेक का तो सर्वथा अभाव होता ही है, सहज माना जा सकता है, किन्तु उन्हे अनुकरणीय उदाव्यावहारिक या नैतिक मूल्यों से भी वे शन्य होती हैं। हरणो के रूप में प्रस्तुत नही किता जा सकता। देव-देवियों की उपासना' चाहे जिस उद्देश्य की जाए, जैन स्थानक, चीराखाना, जीवन के जैन मूल्यों की दृष्टि से मूलतः प्रशास्त्रीय है। जा वंदवाड़ा, दिल्ली 000 पृ० ११६, खं. ५, स. ७६, क. १३; पृ० १६६, खं. १०, क. २१, पुष्पदन्त : जसहरचरिउ, नई देहलो, ५, स. ६३, क. १८; पृ २७५, खं. ५. स. ८६, १९७२, पृ० १२५, स. ४, क.७। क. १८; पृ. २७७, ख. ५, स. ८६, क १६, पृ० १. स्वयंभ : पर्वोक्त पु. ८३.६५ ख० ३, स० ४७१, ३२५, ख. ५, स. ८८, क. ११, कनकामर : क. ३.६ । पूर्वोक्त, पृ० १५६, स. १०, क. २४; नरसेन : पूर्वोक्त, पृ. ८५, स. २, क. ३६; कवि वीर : २. कनकामर : पूर्वोक्त, पृ० ६६, स. ७, क. १२ पूर्वोक्त, पृ० ५८, स. ३. क. १३; पृ. २१२, स. पुष्पदन्त : पूर्वोक्त, पृ० ५१, स. २, क. १४ ।
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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