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________________ स्यावावया अनेकान्त : एक चिन्तन ५७ सत कहलाता है, अर्थात ये तीनों बातें उस द्रव्य में है। स्यादस्ति नास्ति-कथचित् वह पदार्थ उभयरूप पूर्व पर्याय का विनाश. वर्तमान पर्याय की उत्पत्ति, यह है, क्योंकि कम से दोनो की अपेक्षा है। जिस प्रकार पर्याय में होती है उसी प्रकार ध्रुवता द्रव्यत्व स्यादवक्तव्य- - कथचित् वह प्रवक्तव्य है क्योकि मे रहती है। उदाहरण के लिए, एक मनुष्य जीव को दोनों की एक साथ विवक्षा होने से कथन नहीं किया जा लीजिए । वह पहले तिर्यञ्च योनि मे था। अब पर्याय की सकता है । अतः प्रवक्तव्य है। दृष्टि से मनुष्य योनि मे उसकी उत्पत्ति हुई, तिर्यञ्च प्रवक्तव्य होने पर उसका अस्तित्व कसे माना नावे? योनि का विनाश हमा, अर्थात् तिर्यञ्च भी उसका पर्याय तब पाचवां भंग उदय में पाया। था, मनुष्य गति भी एक पर्याय है। अतः पर्याय की दष्टि स्यादस्ति प्रवक्तव्य---पदार्थ मौजूद है परन्तु से उसकी उत्पत्ति व विनाश हुमा । परन्तु द्रव्य दृष्टि से प्रवक्तव्य है। अपने स्वचतुष्टय की अपेक्षा से वह अस्तित्व वह जीव था, अभी भी जीव है, प्रागे भी जीव रहेगा। मे है तथापि हम उसका कथन नहीं कर सकते है। जीवत्व का विनाश कभी नही होगा, उसमे ध्रुवता है । स्यान्नास्ति प्रवक्तव्य परचतुष्टय का उमम इस दृष्टि से उसका नाश कभी नही होगा। अतः नित्य है, पर्याय अनित्य है। प्रभाव है । प्रतः कथचित् नास्ति वक्तव्य है। यहा पर चतुष्टय की अपेक्षा नही होने पर भी प्रवक्तव्य है। इन दोनो नयो का विचार करने पर स्याद्वाद की स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्य-दानो विवक्षा से उत्पत्ति होती है। इन दोनो नयों की अपेक्षा पदार्थ को अस्तित्व नास्तित्व धर्म के एक काल मे होने पर भी मर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य नही कह सकते है। स्यात् । प्रवक्तव्य है। नित्य, स्यात् अनित्य कह सकते है। इन सब भंगों में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य की अपेक्षा कर मानवीय प्राणी की शक्ति, बद्धि प्रादि सीमित होने लेनी चाहिए। इसे स्वामी समन्तभद्र ने एक सुन्दर उदा. के कारण अनन्त धर्मों से युक्त पदार्थ का अनन्त धर्मों से हरण देकर समझाया है-- उल्लेख नही किया जा सकता है, इसलिए सात विवक्षानो घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिध्वयम् । मे उन सभी धर्मों का अन्तर्भाव कर कह दिया जाता है। शोकप्रमोदमाध्यस्थां जनो याति सहेतुकम् ॥ उसे सप्तभंगी कहते है, इस प्रकार का अर्थ भग है, सात प्राप्तमीमासा, ५६. प्रकारो से युक्त है । प्रतः वह स्याद्वाद सप्तभंगी कहलाता एक मनुष्य को सोने के घड़े की जरूरत थी, दूसर को सोने के मकुट की जरूरत थी, तीसरे को सोने की जरूरत सप्तभंगी क्या है ? थी। तीनों सराफ की दुकान मे गये। जिसको घड़े की जरूरत थी वह निराश हुमा, क्योंकि सगफ ने कहा कि __ पदार्थ का स्वचतुष्टय-परचतुष्टय की दृष्टि से विचार मेरे पास सोने का घड़ा था, परन्तु उसके लिए कोई ग्राहक किया जाता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव वे चतुष्टय है, न होने से उसे तुड़वाया एवं सोने का मकुट बनवाया; अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाष स्वचतुष्टय हैं, दूसरों के द्रव्य, मकूट को लेने वाले को हर्ष हुमा, क्योकि वह मकुट क्षेत्र, काल, भाव परचतुष्टय है । चाहता था, परन्तु जो केवल मोना चाहता था उसे नहर स्यादस्ति-अपने चतुष्टय (स्वचतष्टय) की अपेक्षा न विपाद, मध्यस्थ भाव है, क्योंकि घड़े में भी सोना है, पदार्थ मौजूद है। ___ मुकुट मे भी सोना है। इसलिए उसे तोड़ने का न विपाद स्थान्नास्ति-परचतुष्टय की अपेक्षा से पदार्थ नहीं है और न बनाने का हर्ष। है, अर्थात् पदार्थ में अस्तित्व नास्तित्व दोनों धर्म प्राये । यहां पर प्राचार्य ने द्रव्य और भाव दोनों में उत्पाद,
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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