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________________ ५८, वर्ष ३१, कि०२ अनेकान्त व्यय, प्रौव्य का निरूपण किया है। बड़े का विनाश व से कोई भेद नहीं है। श्रुतज्ञान परोक्ष है, केवलज्ञान प्रत्यक्ष मकट की उत्पत्ति, ये सोने में दो पर्याय दृष्टिगोचर होते है, इतना ही अन्तर है। है। उसके साथ ही एक में शोक की उत्पत्ति और हर्ष का इस प्रकार समझकर स्वाद्वादरूपी श्रुतकेवलज्ञान से नाश दीख रहा है, तो दूसरे में विषाद का नाश व हर्ष की जो पदार्थों का ज्ञान करता है वह न भूलता है, वस्तू स्वउत्पत्ति दीख रही है, तथा तीसरे उदाहरण मे जिस प्रकार रूप के समझने में न धोका खाता है, और न वहा पर सोने में सर्वत्र ध्रुवता है उसी प्रकार परिणाम मे भी विवाद उत्पन्न होता है । परस्पर वैषम्य को वह अनेकांत माध्यस्थ या ध्रुवता है। न हर्ष है और न विषाद है। दूर कर हर एक मे समन्वय दृष्टि को निर्माण करता है। परिणाम ध्रुवता है। यही कारण है कि स्याद्वाद लोक मे शांति को उत्पन्न इउ प्रकार सर्व तत्त्वों को प्रकाशित करने वाले स्या- करने के लिए कारण है। दाद का प्राचार्य ने केवलज्ञान के रूप में वर्णन किया है- नयचक्र पारंगत प्राचार्य अमृतचन्द्र स्पष्टत: निर्देश स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशके । करते हैं किभेद: साक्षादसाक्षाच्च वस्त्वन्यतम भवेत् ॥ इति विविधभंगगहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम् । -प्राप्तमीमांसा १०५ गुरवो भवन्ति शरण प्रबुद्धनयचक्रसंचाराः ॥ सर्व तत्त्व को प्रकाशित करने वाला स्याद्वाद भी -पुरुषार्थसिध्युपाय, ५८. केवलज्ञान के समान ही है। भेद सिर्फ इतना ही है कि इस प्रकार विभिन्न नय के प्रयोग में अनेक भंग हैं, केवलज्ञान प्रत्यक्ष रूप से जानता है । स्याद्वाद परोक्ष रूप से और कठिन है । मिथ्यादृष्टि जीव इस भवकानन मे चलते जानता है। दोनो में ज्ञान की दृष्टि से कोई भेद नही है। हुए कभी-कभी मार्ग भूल जाता है, इधर-उधर भटकता एक केवल है, दूसरा श्रुतकेवल है। एक प्रत्यक्ष है, दूसरा रहता है । भटकना भी चाहिए ससार में भटकना या परोक्ष है। इस बात का समर्थन नेमिचन्द्र सिद्धान्त-चक्र- परिभ्रमण करना ही ससार का वास्तविक लक्षण है। वर्ती ने भी किया है। जो इस नयचक्र का ठीक-ठीक प्रकार से प्रयोग नहीं कर सूदकेवलं च णाण दोणिवि सरिसाणि होति बोहादो।। सकें और नयचक्र में चक्कर खाकर भटकते रहे, वे इसे सुदणाणं तु परोक्ख पच्चय केवल णाणम् ॥ समझने के लिए, इस नयचक्र में संचार करने में प्रवीण, -गोम्मटसार जीवकाड सदा निश्शक विचरण करने वाले सद्गुरुप्रो की शरण अर्थात् श्रुतज्ञान मे और केवलज्ञान में ज्ञान की अपेक्षा जावें । अपने पाप उसका परिज्ञान हो जायगा।ne (पृष्ठ ५४ का शेषांश) प्रकलंक, विद्यामन्दि, हरिभद्र सुरि, समन्तभद्र जैसे प्राचार्यों जन सामान्य के बौद्धिक विकास के लिए शिक्षणने अपने शास्त्रार्थों द्वारा देश में एक नयी लहर पंदा की। सस्थान स्थापित किये गये। देश के प्राचीनतम नगरों में प्राचार्य समन्तभद्र के ये दो पद्य तत्कालीन बौद्धिक जीवन ऐसे ही विद्यालय थे, जिनमे प्राइमरी शिक्षा के पश्चात पर अच्छा प्रकाश डालते है : विद्यार्थियों को दार्शनिक, साहित्यिक एवं धार्मिक शिक्षा 'पूर्व पाटलिपुत्र मध्यनगरे भरी मया ताडिता, दी जाती थी। नालन्दा के समान अन्य शिक्षण सस्थाये भी पश्चामालसिन्धु ठक्कविषये काचीपुरे वैदिशे। थी जिनमे गुरुकुलों के रूप में विद्यार्थियो को शिक्षा दी प्राप्तोऽह करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं सकट, बादार्थी विच राम्यह नरपते शार्दूलविक्रीडितम् । जाती थी। १०वी शताब्दी मे बांरा मे और १५वीं 'प्राचार्योऽह कविरहमहं वादिगट पडितोऽह, शताब्दी में नणवा' (राज.) मे ऐसी ही शिक्षण संस्थायें देवोऽहं भिषगहमहं मांत्रिकस्तान्त्रिकोऽहम् । थी। इनके अतिरिक्त, राजस्थान मे ही भामेर, अजमेर, राजन्नस्या जलविलयामेखलायामिलापामाज्ञा- जैसलमेर, नागौर, सागवाडा में विद्याथियों को पढ़ाने के सिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वनोऽहम् ।। लिए शिक्षण संस्थान थे।' १. जैन साहित्य मोर इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ. १७ । २. वही, पृ. २४२। ३. जैन ग्रन्थ भण्डार इन राजस्थान, पृ. २२७। ४. वही, पृ. २३१। ७. वही, पृ. २०२।
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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