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________________ सन्तकवि रइधू और उनका साहित्य D डा. राजाराम जैन, एम. ए , पी-एच. डी. भारतीय वाडमय के उन्नयन मैं जिन बरेण्य साधकों सारयरु अणु पुण बच्छ भाउ, ने अनवरत श्रम एवं अथक साधना करके अपना उल्लेख्य ज जं दीस इणाणा सहाज । तं त जि एत्थु पावियइ सव्वु, योगदान किया है, उनमे महाकवि रइधु अपना प्रमुख लब्भइप कव्व-मणिक्कु भन्नु । स्थान रखते हैं। उन्होने पपने जीवन काल के सीमित समय एत्थु जि वह बुह णि वसहिउ किट्ट, मे २३ स भी अधिक विशाल अपभ्रश, प्राकृत ग्रन्थो की णउ सुकउ को वि दीराइ मणि? । रचना करके साहित्य जगत् को आश्चर्यचकित किया है। भो णिसुणि वियक्खण कहामि तुझ, रचनायो का विषय वैविध्य, सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश एवं 'क्खमि ण किपि णियचितगुज्झ । हिम्दी प्रादि भाषामो का असाधारण पाण्डित्य, इतिहास पत्ताएव संस्कृति का तलस्पर्शी ज्ञान, समाज एव राष्ट्र को तह पुणुकवरयण रयणायरु बालमित्त प्रम्हहं हाउस। साहित्य, संगीत एवं कला के प्रति जागरूक कराने की तुहु महु सच्च उ पुण्ण सहायउ महु मणिच्छ पूरण प्रण रायउ॥ क्षमता जैसी उक्त कवि मे दिखाई पड़ती है, वैसी अन्यत्र --सम्मत० १७१-७ तथा १३१४१८-६ कठिनाई से ही प्राप्त हो सकेगी। अर्थात् "हे कविवर, शयनासन, हाथी, घोड़े, ध्वजा, कवि की कवित्व-शक्ति उसके वर्ण्य विषय मे तो छत्र, चमर, सुन्दर रानियां, रथ, सेना, सोना, धन-धान्य, स्पष्ट दिखती ही है, किन्तु समाज एव राजन्यवर्ग के लोगो भवन, सम्पत्ति, कोष, नगर, देश, ग्राम, बन्धु-बान्धव, को भी उसने माहित्य एव कलाप्रेमी बना दिया था। यह सुन्दर सन्तान, पुत्र, भाई ग्रादि सभी मुझे उपलब्ध हैं। महाकवि र इध की अद्वितीय देन है। ऐसी लोकोक्ति मौभाग्य से किमी भी प्रकार की भौतिक सामग्री की मझ प्रसिद्ध है कि लक्ष्मी एवं सरस्वती का सदा से बैरभाव कमी नही है। किन्तु इतना सब होने पर भी मुझे एक चला पाया है। कई जगह यह उक्ति सत्य भी सिद्ध हुई वस्तु का अभाव सदैव खटकता रहता है, घोर वह यह कि है. लेकिन कवि ने उनका जैसा समन्वय किया-कराया, मेरे पास काव्यरूपी एक भी सुन्दर मणि नहीं है। इसके वही उसकी विशिष्ट एवं अद्भुत मौलिकता है। उदाहर- बिना मेरा सारा ऐश्वर्य फीका-फीका लगता है। हे कामणार्थ कवि की प्रशस्तितों में से एक प्र-यन्त मार्मिक प्रसग रूपी रत्नों के रत्नाकर, तुम तो मेरे स्नेही वालमित्र हो, उपस्थित किया जाता है, जिससे कवि प्रतिभा का चमत्कार तुम्ही हमारे सच्चे पुण्य-सहायक हो, मेरे मन की इच्छा स्पष्ट देखने को मिल जाता है। परिपूर्ण करने वाले हो । इस नगर मे बहुत से विद्वज्जन महाकवि र इध की साधना-भूमि गोपाचल (ग्वालियर) निवास करते है, किन्तु मुझे प्राप जैसा कोई भी भन्य मे तत्कालीन तोमरवंशी राजा डूगरसिह के मन्त्री सबबी सुकवि नहीं दिखता। अतः हे कवि श्रेष्ठ, मैं अपने हृदय कमलसिंह निवास करते थे, जो स्थितिपालक एव उदार- की ग्रन्थि खोलकर सच-सच अपने मन की बात प्राप से मना थे । राज्यपदाधिकारी होने से वे राज्यकार्यों में बड़े कहता हूं कि प्राप एक काव्य की रचना करके मुझ पर व्यस्त रहते थे। एक दिन वे उससे घबराकर रइध से अपनी महती कृपा कीजिए।" कमलसिंह के उक्त निवदन भेंट करते है तथा निवेदन करते है पर कविने 'सम्मत्तगुणणिहाण कन्व' नामक एक अध्यात्म सयणासण तबेर तुरग, एवं दर्शन के ग्रन्थ की रचना की। धय-छत-चमर-भामिणि-रहग । उक्त महाकवि का काल अन्तर्वाह्य साक्ष्यो के प्राचार कंचण-घण-कण-घर-दविण-कोस, पर वि. स. १४४०-१५३० सिद्ध होता है। पिछले १५ जाणइ जपाइ जणिय तोस । तह पुण णयरायर-देस-गाम, वर्षों के निरन्तर प्रयासो से उक्त कवि के २१ प्रन्थ इन बंधव णंदण णयणाहिराम । पक्तियो के लेखक को भारत के विविध शास्त्रभण्डारो से
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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