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________________ ६०, वर्ष ३१, कि०२ अनेकान्त उपलब्ध अथवा ज्ञात हो सके है, जिनकी वर्गीकृत सूची उनके पुत्र राजा कीतिसिंह ने राज्य की कोटि-कोटि मद्राएं इस प्रकार है व्यय करके तैतीस वर्षों तक लगातार अगणित जैन मूर्तियों चरित साहित्य का निर्माण गोपाचल दुर्ग में कराया था। उनमे से कई (१) महेसर चरिउ (मेघेश्वरचरित), (२) बलहद्दचरिउ (वलभद्रचरित), (३) जिम धरचरिउ (जीमन्धर. मूत्तियां विशाल है। एक मूर्ति तो ५७ फुट ऊँची है। चरित), (४) सिरि सिरिवालचरिउ (श्री श्रीपालचरित), सख्या, विशालता एवं कला वैभव में वे अनुपम है। (५) जसहरचरिउ (यशोधरचरित), (६) सम्मइजिण इसी प्रकार चन्द्रवाडपट्टन (अाधुनिक चन्दुवार, जिला चरिउ (सन्मतिजिनचरित), (७) हरिवंशचरिउ (हरि फिरोजाबाद, उ० प्र०) निवासी श्री कुन्थुदास नगरसेठ वशचरित), (4) सुक्कोसलचरिउ (सुकौशलचरित), ने भी कवि की प्रेरणा से हीरे, मोती, माणिक्य की अनेक (६) धण्णकुमारचरिउ (धन्य कुमारचरित), (१०) सति- मूत्तियो का निर्माण कराकर पचकल्याणक प्रतिष्ठाएं की णाहचरिउ (शान्तिनाथचरित), (११) पासणाहचरिउ थीं। उपलब्ध भारतीय इतिहास मे मतिकला सम्बन्धी (पाश्वनाथचरित)। उक्त घटनामो की चर्चा नहीं की गई। ऐसा क्यों हमा? प्राचार, दर्शन एव सिद्धान्त साहित्य यह कारण अज्ञात है। किन्तु अब रइध-साहित्य-प्रशस्तियो पासवकहा पिण्याश्रवकथा), (१३) साव- के प्राधार पर मध्यकालीन भारतीय इतिहास के पूनर्लेखन यचरिउ (धावकचरित), (१४) सम्मतगुणणिहाणकव्व की आवश्यकता है। मम्यक्त्वगणनिधान काव्य), (१५) अप्पसबोहकव्व प्रशस्तियो की दूसरी विशेषयता यह है कि उनमें सम्बोध काव्य), (१६) अणथमिउकहा (अनस्त. काष्ठासघ, माथुर गच्छकी पुष्करगण शाखा के अनेक त कथा), (१७) सिद्धतत्थसार (सिद्धान्तार्थसार), भट्टारको को श्रमबद्ध परम्परा प्राप्त है । कवि ने देवसेन, एवं (१८) वित्तसार (वृत्तसार)। विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीत्ति, गुणकीत्ति, यश:अध्यात्म साहित्य कोत्ति, श्रीपाल ब्रह्म, खेमचन्द्र, मलयकीर्ति, गुणभद्र, विजय(१६) बारा भावना, (२०) सोलह कारण जयमाला, सेन, क्षेमकीति, हेमकीत्ति, कमलकोत्ति, शुभचन्द्र एवं (२१) दशलक्षणधर्म जयमाला । कुमारसेन के उल्लेख किये है। यद्यपि ये उल्लेख सक्षिप्त उक्त ग्रन्थो के अतिरिक्त कवि द्वारा विरचित महा एवं प्रसंगप्राप्त है, किन्तु उनके क्रम एवं समय निर्धारण पुराण, सुदसणचरिउ (सुदर्शनचरित), पज्जुणचरिउ तथा उनके साधनापूर्ण कार्यों को समझने के लिए वे (प्रद्युम्नचरित), भविसयत्तचरिउ (भविष्यदत्तचरित), महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ सामग्री प्रस्तुत करते है । करकडचरिउ (करकडुचरित) प्रभृत्ति ग्रन्थ अनुपलब्ध है, रइघू ने पूर्ववर्ती अपभ्रश कवियो में चउमुह (चतुकिन्तु उनका अन्वेषण कार्य जारी है। मख) द्रोण, ईशान, स्वयम्भ, पुष्पदन्त, धनपाल, वीर, रइधु साहित्य की विशेषताएँ धवल, धीरसेन, पविषेण, सुरसेन तथा दिनकरसेन तथा साहित्य की सर्वप्रथम विशेषता है उसकी विस्तृत सस्कृत कवियो में देवनन्दि, जिनसेन (प्रथम और द्विती) स्तियां। कवि ने अपने प्राय: सभी ग्रन्थो के एवं रविषेण के उल्लेख किये है। अपभ्रश एव हिन्दी के प्राति एवं अन्त में प्रशस्तियों का अकन किया है, जिनके अनुसन्धित्सुमो के लिए धीरसेन, पविषेण, सुरसेन एव माध्यम से कवि ने समकालीन साहित्यिक, धार्मिक, दिनकरसेन इन चार कवियो के नाम नवीन है। रइध ने प्राधिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थि- उनकी क्रमश. प्रमाण, नय प्रमाण, नेहेसरचरित एवं तियो पर मस्टर प्रकाश डाला है। इन प्रशस्तियो से अणगचरिउ नाम की कृतियो के उल्लेख किये हैं। इन विदित होता है कि तोमरवशी राजा डूंगरसिंह एव कात्ति- ग्रन्थों के अन्वेषण एव प्रकाशन से निश्चय ही साहित्यिक सिंह तथा चौहानवशी राजा रुद्रप्रताप कवि के परमभक्त इतिहास के पुननिर्माण में कई दष्टियो से सहायता तथा साहित्य एव कथा रसिक थे। राजा डूगरसिंह तथा मिलेगी।
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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