SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ बर्ष ३१, क.. अनेकान्त पावश्यकता है। प्रपेक्षावाद के बिना एक पत्ता भी हिल स्थाद्वादो विद्यते यत्र, पक्षपातो न विद्यते । नहीं सकता है, जीम तो कैसे हिले ? जहाँ स्यावाद है वहां पक्षपात नहीं। प्राचार्य हेमचन्द्र ने पदार्थ जिस प्रकार अस्तित्व में हो, उसका उसी प्रकार इससे भी भागे बढ़कर कहा किकथन करना चाहिए। उस प्रकार कथन न करें तो उसका पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष: कपिलादियु । कथन ही प्रयथार्थ होगा, अर्थात् वह ज्ञान सत्य ज्ञान नहीं है। युक्तिमद्वचन यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः।। अनेकान्त या स्यावाद हमें प्रपेक्षावाद को सिखाता है। मुझे भगवान महावीर में भी पक्षपात नही है, और यह भी कहता है कि पदार्थ जिस प्रकार है, उसे उसी कपिलवादिकों के प्रति द्वेष भी नहीं है, जिनका कथन प्रकार कथन करने का अभ्यास करो। युक्तियुक्त है उसे स्वीकार मैं करता हूं। जहां मनेकान्त है वहां पर कोई विवाद उत्पन्न नहीं स्याथाद की उत्पत्ति क्यों? होता है। अनेक समस्यायें इस अनेकान्त के कारण अपने नय दो प्रकार के है । नय दो प्रकार के कहने की पाप सुलझ जाती हैं। प्रतः प्रत्येक पदार्थ को समझने के अपेक्षा, अपेक्षावाद दो प्रकार का है यह कहने से काम चल लिए इस अपेक्षावाद का उपयोग प्रावश्यक है, इसमें पर सकता है। अपेक्षावाद दो प्रकार का है यह कहने की स्पर कोई विरोध भी नहीं है। अपेक्षा पदार्थ उमी प्रकार से है यह कह दिया जाय तो प्रकाश-प्रन्धकार, शत्र-मित्र, गुरु-शिष्य, पति-पत्नी, अधिक समजस दिख सकेगा। बैठना-उठना, सोना-जागना, गेहूं-चावल, घी तेल, नमक ___नय विवक्षा दो प्रकार से है-द्रव्याथिक और पर्यामिर्च मादि सर्व व्यवहार अपेक्षावाद से युक्त है, अपेक्षा यायिक । वाद को छोड़कर हम इन शब्द प्रयोगों को नही कर । द्रव्य की अपेक्षा रखने वाला, द्रव्य ही जिसका प्रयोसकते हैं। जन हो, द्रव्य की दृष्टि को रखकर कथन करने वाला नय एक ही व्यक्ति में पितृस्व, पुत्रत्व, भ्रातृत्व, कनिष्ठ द्रव्याथिक है। पर्याय की दृष्टि को रखकर पदार्थ का भ्रातृत्व, ज्येष्ठ भ्रातृत्व, मामापना, भानजापना, प्रादि विचार करने वाला, पर्याय की अपेक्षा रखकर विचार सम्बन्ध विद्यमान हैं। इन सबको अपेक्षावाद से जानना करने वाला, पर्याय ही जिसका प्रयोजन हो वह पर्यायाथिक चाहिए। अपेक्षावाद के बिना हम पदार्थों को समझने मे नय है। नयों का समुदाय ही प्रमाण है। अत: यह असमर्थ रहेंगे, मज्ञानी बने रहेंगे। नय भी प्रमाण का एकदेश होने से प्रमाण-स्वरूप है। पदार्य को जैसा है वैसा समझना ही सम्यग्शान है। इसे महर्षि पूज्यपाद ने 'क्षीरार्णवजल घटगृहीतमिव', सम्यग्ज्ञान के बिना वस्तु के निश्चित स्वरूप का ज्ञान नहीं क्षीरसमुद्र के पास से एक घड़े मे जैसा लेवें तो वह क्षीर. हो सकता है। वस्तु के निश्चित स्वरूप के बिना अपना भी मान नहीं हो सकता है। प्रतः वह निरपेक्षवादी सर्व ज्ञानों समुद्र है क्या-नहीं, क्षीरसमुद्र का जल है क्या ? है, से वंचित रहता है। स्यावाद समन्वयवाद है, पदार्थ को। इस प्रकार प्रमाण एकदेश प्रमाणात्मक उत्तर मिलेगा, इसी प्रकार नय में प्रमाण का एकदेशत्व है। सर्वथा स्वीकार नही करना है, उसमें कथंचित् अर्थ मभिप्रेत है। कथंचित् पर्थ जहां अभिप्रेत हो वहां पर कोई फिर द्रव्य-पर्याय दृष्टि क्या है ? विवाद उत्पन्न नहीं हो सकता है। प्राचार्य उमास्वामी ने द्रव्य का लक्षण करते हुए जहां पक्षपात है वहीं विवाद उत्पन्न होता है, पक्ष- कहा कि 'सत द्रव्यलक्षणम्', सत् द्रव्य का लक्षण है। सत् पात रहित स्वाभाविक कथन में विवाद ही उत्पन्न नहीं क्या है। इसका उत्तर देते हुए प्राचार्य ने कहा हैं कि हो सकता है। इसीलिए कहा गया है कि 'उत्पादध्ययध्रौव्ययुक्तं सत्'; उत्पत्ति, विनाश और ध्रुवता
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy