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________________ स्याद्वाद या अनेकान्त : एक चिन्तन 0 पंडित वर्धमान पा० शास्त्री, सिद्धान्ताचार्य परमागमस्यबीज मिषिद्धगत्यंश सिंदुरविधानम् । यह स्यावाद किसी प्रकार का कोई विघ्न उपस्थित नहीं सकलनविलसिताना विरोधमथन नमाम्यनेकांतम् ॥ करता । -अमृतचन्द्व अनेकांत-प्रनेके घेता धर्म जिसमें हों उसे भनेकांत भनेक अधों ने हाथी कभी नही देखा था। हाथी कहते है। स्याद्वाद का वही अर्थ है। किसी ने पूछा कि देखने चले गये । किसी अन्धे ने कहा कि हाथी खम्भे के क्या पदार्थ नित्य है ? अनेकांतवादी यह नही कहेगा कि समान है। किसी अन्धे ने कहा कि हाथी पंखे के समान पदार्थ नित्य ही है। वह कहेगा कि स्यात्, होगा, अर्थात है। किसी ने कहा कि हाथी केले के खूट के समान है। नित्य होगा। इसमे यह भी अर्थ गभित है कि भनित्य किसी ने कहा कि ढोल के समान है। किसी ने हड भी होगा। समान बताया। साथ ही इन अन्धों ने अपनी-अपनी बात फिर तो लोग कहेंगे कि यह सशय है, किसी विषय का समर्मन करते हुए दूसरे के विरोधी कथन को अस्वी का निर्णीत रूप से कथन नहीं करता है। तो यह सशय कार करते हुए मापस में झगड़ा भी किया। झगड़ा , नही है। बढ़ता ही जा रहा था। कोई आँखों वाला बुद्धिमान जा विरुद्धानेककोटिस्पशिज्ञानं संशयः। रहा था। उसने देखा कि ये प्रापस में लड़ रहे है, वास्तव विरुद्ध अनेक कोटि को स्पर्श करने वाला ज्ञान सशय है । में झगड़ा क्या है ? सो उसकी समझ मे पाया। उसने यह सांप होगा? या रस्सी होगी? क्या और कुछ है ? सोचा कि इन्होने हाथी के एक-एक अग को हाथ लगाया इस प्रकार बिचार करने वाला संशय है । सशय में किसी है; अपनी-अपनी अपेक्षा से हाथी का वर्णन करते है। यह भी विषय का निर्णय नही हो पाता है, परन्तु इस स्यात हाथी का सम्पूर्ण वर्णन नही है। हाथी तो सभी अवयवों अथवा अपेक्षावाद के ज्ञान मे निश्चितता है, ममक अपेक्षा का पिण्डरूप है। प्रस्तु इनका प्राग्स का झगड़ा मिटाना ' भगडा मिटाना से पदार्थ नित्य है, अमुक अपेक्षा से पदार्थ अनित्य है, चाहिए, किमी नय की अपेक्षा एक-एक का कथन भी का कथन भी अमुक अपक्ष अमुक अपेक्षा से उसमे वस्तुत्व है, अमक अपेक्षा से उसमें सत्य है । पतः उसने कहा कि तुम्हारा कहना भी सत्य है, प्रमेयत्व है, इत्यादि अनन्त धर्म होने पर भी अपेक्षावाद तुम्हारा कहना भी सत्य है। सभी अन्धो को प्रानन्द से वह निश्चित है । सो यह सशय, विपरीत व प्रमध्यवहमा। झगड़ा मिट गया, 'भी' से झगड़ा मिटा, 'ही' से साय मादिक ज्ञानाभास नही हो सकता है। प्रतः स्याद्वाद विरोध नहीं मिटता। इस 'ही' और 'भी'का प्रन्तर प्रने सम्यग्ज्ञान है। कान्त है। इसे ही स्याद्वान् कहते हैं । दूसरी बात, इसका कथन वस्तुस्वरूप के अनुसार है। मैं कहता हूं सो सत्य ही है, ऐसा कहने वाला सत्य कोई भी कृत्रिमता या वनावटी बात यहां नहीं है, क्योंकि से बहुत दूर है। माप जो कहते हैं वह भी सत्य हो । पदार्थ उसी प्रकार मौजूद है। उसका कथन उसी प्रकार सकता है, यह कहने से विरोध हो ही नहीं सकता है। किया जा रहा है। इसमें कृत्रिमता क्या है? पदार्थों में मनन्त धर्म विद्यमान, है उसे अपेक्षावाद से ही हम समझ इसलिए यह अनेकान्त या स्यावाद नयों के द्वारा सकते है। अपेक्षावाद को छोड़ दिया जाय तो उसका उत्पन्न विरोष को मिटा। वस्तुस्थिति के साध्य में कथन हम नहीं कर सकते हैं। मतः प्रपेक्षावाद की प्रत्यन्त
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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