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________________ समयसार में तस्व-विवेचन की वृष्टि १०५ मक्ति मे प्रखंड, एकरस, अविचल, चित्स्वरूप की इन दोनों मे भी दूसरों को समझाने के लिए 'नय' हो। अनुभति प्रावश्यक है-इस तथ्य का निरूपण करने का प्रधान साधन था। नयो के भी दो प्रकार किये गये थेप्रयास समयसार में किया गया है। मोक्ष की साधना मे (१) द्रव्यास्तिक और (२) पर्यायास्तिक । किन्तु इन दोनों चौदह 'गुणस्थानो' की कल्पना है जिसमें साधक मिथ्यात्व, नयों से प्रारमा की नित्यता व अनित्यता. सकता है. प्रविरति, प्रमाद, कषाय व योग--इन बंधहेतुनों को क्रमशः कता तो हृदयगम की सकती थी, पर शुद्ध प्रात्मविकास जीतता हा प्राग बढता जाता है। इसी तरह साधना के की विभिन्न श्रेणियों का तथा विशेषकर चरम सोपान को पथ में प्रात्मा के तीन रूपों की भी कल्पना की गई है। वे समझने मे पर्याप्त सहायता नही मिलती थी। हैं- (१) बहिरात्मा, (२) अंतरात्मा और (३) पर- प्राचार्य कुन्दकुन्द के समय दार्शनिक क्षेत्र में वस्तु का मात्मा। किन्तु प्रश्न यह था कि पाखिर इस स्थिति को निरूपण दो दृष्टियो से होने लगा था-एक पारमायिक प्राप्त कैसे किया जाय । बहिरात्मा देह को प्रात्मा समझता दृष्टि और दूसरी व्यावहारिक दृष्टि । प्राचार्य कुन्दकुन्द है. अनात्म को प्रात्मा मममता है,८ रागद्वेषयुक्त रहता ने अपने प्रात्मतत्त्व के निरूपण के लिए दो दृष्टियां चुनी है.२९ अन्तगत्मा संसार से, विषयों से विरक्त रहता है, -(१) निश्चय दृष्टि व (२) व्यावहारिक दृष्टि । रागग्रेप-रहित रहता है, परमात्मत्व प्राप्ति के लिए प्राचार्य कुन्दकुन्द के परवर्ती काल मे तो तात्त्विक विवेप्रयत्नशील रहता है, वह इस भावना को दृढ़ करता है कि चनो मे द्रव्यास्तिक व पर्यायास्तिक नयों का प्राश्रय भले परमात्मा मैं ही हूँ, मैं ही मेरा उपास्य " प्रादि। पर- ही लिया जाता रहा, पर प्राध्यात्मिक विकास परक ग्रंथों मास्व की प्राप्ति मात्मा के अन्दर से ही होती है, मे निश्चय व व्यवहार इन दो नयों का ही पाश्रय लिया बाह्य से नहीं, उसी प्रकार जैसे कि (वृक्ष) काष्ठ को जाता रहा है।" गहने से उसमे से प्राग निकल पड़ती है। किन्तु यहा इन दो दृष्टियों को व्यावहारिक व सहजगम्य तरीके यह समस्या थी कि अन्तरात्मा से परमात्मा की स्थिति से प्रस्तुत करते हुए शुद्ध प्रात्म-स्वरूप की झलक दिखाने कसे प्राप्त हो। व्यावहारिक धरातल पर जीने वाले में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने सफलता प्राप्त की। निश्चय व साधक को उस अखड परमात्म-तत्त्व की झलक कैसे व्यवहार दृष्टियों का मोटे तौर पर प्राधार यह है कि दिवाई जाय जो सहज बोधगम्य व तार्किक भी हो। ज्यों ज्यो हम अपनी प्रवृत्ति को अधिकाधिक अन्तमखी किसी वस्तु को प्राप्त करने का प्रमुख उपाय यह है कि करते रहेगे या परस्य से हटते-हटते स्वत्व की पोर सीमित उस वस्तु को जाना जाय । परमात्मा का या शुद्ध प्रात्मा होते रहेगे, हम परम तत्व या परमात्मत्व के निकट पहचते का स्वरूप जानने पर ही उसकी प्राप्ति सम्भव होगी- जाएंगे । यह प्राचार्य कुन्दकुन्द का मत था। समवसार से पूर्व दार्शनिक परिभाषा मे, व्यवहार नय 'पर' में भी 'स्व' तक किसी वस्तु को जानने का उपाय प्रमाण व नय था।" का भारोपण कर लेता है," प्रशुद्ध निश्चय नय 'पर' में ३३. सुदं तु विधाणतो सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो। (समय० १८६) ३४. त० सू० १६ । २६. जोपस्सदि अप्पाण प्रबद्धपुट्ठ अणण्णय णियदं । अविसेसमजुत तं सुद्धणयं वियाणीहि । (समय. १४) २७. समाधिशतक--६०, ५-६ । २८. समाधिशतक-१० । २६. समाधि० १४ ३०. समाधि० १६-२० । ३१. समाधि० ३१ । ३२. समाधि०६८। ३५. द्रष्टव्य --'अधुना अध्यात्मभाषया नया उच्यन्ते' के वाद निश्चयनयादि का निरूपण-मालापपनि । तथा पुरुषार्थसिद्धयुपाय-४। ३६. समयसार टीका, प्रारमख्याति, गाया २७२ ।
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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