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________________ १०४ वर्ष ३१, कि० ३-४ मोगात का श्रद्धान व ज्ञान तथा अनुसरण करना चाहिए।८ पृष्ठभूमि के परिप्रेक्ष्य में इसका कारण ढूंढा जा सकता है। मात्मा का ही ध्यान प्रावश्यक है, अन्य द्रव्यों में ममत्व- जीव के बन्धन का प्रमुख कारण यह है कि वह बुद्धि उचित नहीं। अनात्म को प्रात्मा समझ बैठता है, जब उसे यह ज्ञान यह तो हुआ समयसार का सामान्य उद्देश्य । एक हो जाता है कि शरीरादि अजीव पदार्थ प्रात्मा से पृथक विशेष उद्देश्य भी है जिसका निरूपण करना आवश्यक है। है, तो मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। किन्तु मोक्ष. समयसार में प्रचलित परम्परा से पृथक दार्शनिक दृष्टि- मार्ग के द्रष्टा महापुरुषों की अनुभूति के अनुसार, मुक्ति कोण का प्रतिपादन दिखाई पड़ता है। ममयसार की की प्रकिया मे उक्त स्थिति के बाद यह भी आवश्यक है रचना से पूर्व यह मान्यता थी कि एकत्वबुद्धि और भेद या कि आत्म-स्वरूप का भी ज्ञान हो। साधक राह तो जाने अनेकत्त्व-बद्धि मोक्ष का हेतु है, किन्तु समयसार मे प्रा० ही कि मैं प्रजीव नही हैं, बल्कि यह भी जाने कि 'मैं' कुन्दकुन्द एकत्वबद्धि को ही पाह्य बताने देखे जाते है ।" क्या हूं, या प्रात्मा का क्या वैशिष्ट्य है, क्या स्वरूप है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द प्रतिवाद का समयसार में पूर्व तक यात्मा का जो वैशिष्ट्य या स्वरूप प्रतिपादन करने जा रहे है। परब्रह्म की समकक्षता मे गित होता रहा, वह मक्ति के प्रतिम मोबान तक 'सत' पदार्थ की कल्पना, जिसमे म पूर्ण विश्व समाहित पहुचाने की दाट में पर्याप्त नही था। जैसे प्रात्मा अपने है, प्रवचनसार मे प्राप्त होती है जो इस सदर्भ में उल्लेख- सुख-दुःखो का स्वय कता है, भोक्ता है", पुदगल द्रव्य के नीय है।" वे स्पष्ट शब्दो में कहते है कि शुद्ध प्रात्मा के मंसगं मे पाकर वह स्वभावच्युत हो जाता है और बन्धन में ज्ञाता व ज्ञेय का पार्थक्य नही है ।२२ पड़ जाता है, प्रादि-आदि निरूपण शास्त्रो में मिलता है । ५ प्राखिर इग दार्शनिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने के यदि साधक यही सोचता है कि मैं सुख दुखो का पीछे क्या पृष्ठभूमि रही है, यह विचारणीय है। कर्ता व भोक्ता हू, मुझसे अजीव पृथक है- तो इससे पं० दलसूम मालवणिया के मत में प्राचार्य कुन्दकुन्द शुद्ध चित्त स्वरूप की प्राप्ति तो नही हो सकती। द्रष्टा व के समय मे अद्वैतवाद की बाढ ग्रा गई थी, प्रोपनिषदिक दश्य, भोक्ता व भोग्य प्रादि के भेद समाप्त हए विना ब्रह्माद्वत के अतिरिक्त शन्यवाद व विज्ञानाद्वैतवाद जैसे मोक्ष प्राप्त नही हो सकता। मै और मेरा का भेद जब वाद भी दार्शनिको मे प्रतिष्ठित हो चके थे। ताकिक व तक रहेगा तब तक मक्ति के द्वार तक ही पहच कर रुक श्रद्धालु - दोनो के ऊपर अढनवाद का प्रभाव सहनही जाना पड़ेगा, क्योकि मै और मेरा की स्थिति प्रात्मा के जम जाता था। यह सामयिक प्रभाव प्राचार्य कुन्द- स्वरूप को ग्वडित करती है। [यही कारण है कि योग कुन्द पर भी पडा। दर्शन में सम्प्रज्ञात समाधि के बाद असम्प्रज्ञात समाधि मेरी समझ मे यही कारण पर्याप्त नही है । दार्शनिक का निरूपण किया गया है।] १८. समयसार -१८ । १६. मोक्खपहे प्रमाण ठवेहि त चेव झाहि त चेव । (समय० ४१२) २०. एयत्तणिच्छयगदा समग्रो सम्वत्थ सुदरो लोए। बंधकहा एयत्ते तेण सिवादिणी होदि । (समय०३) सुदपरिचिदाभवा सम्वस्स वि कम्मभोगबंधकहा। एयत्तस्युवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ॥ त एयत्त विहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण । जदि दाएज्ज पमाणं चक्केज छलं ण घेत्तव्वं । (समय ४-५) २१. प्रवचनसार-२.५-६, सत्ता सम्वपयत्था-एक्का । (पंचास्तिकाय-८) २२. एवं भणंति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव । (समय०६) २३. द्र. मागम युग का जैन दर्शन । (पं. मालवणिया पृ. २३२)। २४. अप्पा कत्ता विकत्ता य दुक्खाण य सुहाण य । (उत्तरा० २०.३७) २५. त. सू. ८.२, उत्तरा. ३६।
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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