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________________ स्थाहाव-जैन-दर्शन की अन्तरात्मा २५ बर्कले तथा शिलर प्रादि हैं। वस्तुवादी सापेक्षवाद के ही सत्य है। इस प्राक्षा के विरुद्ध यह कहा जा सकता है प्रवर्तक हाइटहेड, बडिन प्रादि हैं। जनमत को यदि कि किमी सिद्धान्त की मौलिक मान्यता को स्वय उस सापेक्षवाद माना जाए तो वह वस्तुवादी सापेक्षवाद होगा, सिद्धान्त के विरुद्ध प्राक्षेप के रूप में प्रयुक्त करना सही क्योंकि जैन दार्शनिक मानते हैं कि यद्यपि ज्ञान सापेक्ष है, नहीं है । ताकिक भाग्वादियों को मौलिक मान्यता है कि फिर भी यह केवल मन पर निर्भर नही है, बल्कि वस्तुमो जो प्रत्यक्ष द्वारा प्रमाणित है वही सत्य है। उनके विरुद्ध के धर्मों पर भी निर्भर है। यह माक्षेप करना सही नहीं है कि उनका यह सिद्धान्त स्यादवाद सिद्धान्त से यह स्पष्ट है कि जनों की दष्टि ही सत्य नही है क्योंकि यह प्रत्यक्ष द्वारा प्रमाणित नही बडी उदार है । जैन मन्यान्य दार्शनिक विचारों को नगण्य है। प्रा: "द्वाद के विरुद्ध यह पाक्षेप सही नहीं है कि नहीं समझते, बल्कि अन्य दष्टियो से उन्हे भी सत्य यह सिद्धान्त मागिक प से सत्य है। मानते है। भिन्न-भिन्न दर्शनो मे समार के भिन्न-भिन्न सप्तभंगी-नय के विरुद्ध यह प्राक्षेप किया जाता है वर्णन पाये जाते है। इसका कारण यह है कि उनमे एक कि इसके अन्तिम तीन भग पुनरुक्ति मात्र तथा दष्टि नहीं है । दहि भेद के कारण ही उनमे मतभेद पाया निरर्थक है क्योंकि वे चतथं मंग को क्रमशः प्रथम. जाता है। द्वितीय तथा तृतीय से मिला देने पर प्राप्त होते हैं। कुमारिल का प्राक्षेप है कि इस तरह के संयोग के माधार बौद्ध तथा वेदान्त दार्शनिको के प्राक्षेप है कि स्याद. पर सात के स्थान पर सौ भंग सम्भव है। जैन ताकिक वाद प्रात्मविरोधी मिद्धान्त है। धर्मकीर्ति तथा शान्त इस प्राक्षेप का उत्तर इस प्रकार देते हैं। वे स्वयं इस रक्षित का कहना है कि अस्तित्व तथा अनस्तित्व जैसे बात को स्वीकार करते है कि मूल भग तीन ही है किन्त व्याघातक गुण एक ही वस्तु मे एक ही अर्थ मे नही पाये अन्य चार भंग पुनरुक्ति मात्र तथा निरर्थक नहीं हैं। उनका जा सकते । शकराचार्य तथा रामानुज भी स्यावाद के कहना है कि गणित के नियम के अनुसार तीन के प्रषिकविरुद्ध यही प्राक्षेप करते है। किन्तु ये आक्षेप सही नही तम अपुनरुक्त विकल्प सात ही हो सकते है। दूसरी बात है। जैन दर्शन यह कभी नही कहता है कि व्याघातक है कि प्रश्न सात प्रकार के ही होते है। अतः अपुनरुक्त गुण एक ही वस्तु में, एक ही समय तथा एक ही अर्थ मे । अधिकतम भगो की संख्या वे सात मानते हैं। 000 श्री पाये जाते है। जैनों के अनुमार वस्तु अनन्त धर्म वाली मगध विश्वविद्यालय, प्रारा (बिहार) है। द्रव्य की दृष्टि से वस्तु एक, स्थायी तथा यथार्थ है । किन्तु पर्याय की दृष्टि से यह अनेक, परिवर्तनशील तथा 'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण प्रयथार्थ है । स्व द्रव्य, रूप, दिक तथा कान की दृष्टि से | प्रकाशन स्थान-वीरसेवामन्दिर, २१ दरियागज, नई दिल्ली वस्तु सत् है तथा पर द्रव्य, रूप, दिक तथा काल की दृष्टि | मुद्रक-प्रकाशक --वीर सेवा मन्दिर के निमित्त से यह प्रसत् है । अत: यहा विरोध का कोई प्रश्न ही प्रकाशन प्रवधि--मासिक श्री प्रोमप्रकाश जैन नहीं है। वस्तु मे व्याघातक गुण भिन्न दृष्टियों से पाये | राष्ट्रिकता - भारतीय पता-२१, दरियागज, दिल्ली-२ जाते है. एक ही दृष्टि से नहीं। सम्पादक-श्री गोकुलप्रसाद जैन राट्रिकता-भारतीय वेदानी स्याद्वाद के विरुद्ध एक दूसरा प्राक्षेप भी पता- वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागज, नई दिल्ली-२ करते है । उनका कहना है कि यदि प्रत्येक वस्तु सभाव्य | स्वामित्व-चोर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ है तो स्यावाद भी संभाव्य है, यधार्थ नहीं। किन्तु यह मैं, पोमप्रकाश जैन, एतद्द्वारा घोषित करता हू कि प्राक्षेप भी मही नही है । स्याद्वाद संभाव्यव द नहीं है। मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपयुक्त बल्कि सापेक्षवाद है। शकराचार्य का प्राक्षेप है कि यदि विवरण सत्य है। -~-मोमप्रकाशन, प्रकाशक प्रत्येक सत्यता प्रांशिक है तो स्यावाद भी प्रांशिक रूप से ।
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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