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________________ २४.३१ ० १ स्यात् ग्रस्ति स्यात् नास्ति स्यात् अस्ति च नास्ति प स्यात् प्रवक्तव्यम् स्यात् प्रस्ति च प्रवक्तव्यम् च स्यात् नास्ति च प्रवक्तव्यम् च प्रौर स्यात् श्रस्ति च नास्ति च प्रवतव्यम् च । 'स्यात् प्रस्ति' प्रस्तिबोधक या भावात्मक परामर्शो का सामान्य रूप है । स्वद्रव्य की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु सत है 'स्यात् घडा लान है' इसने यह बोध होता है कि घड़ा सब समय के लिए बाल नहीं है, बल्कि किसी विशेष समय में या विशेष परिस्थिति मे लाल है। यह भी बोध होता है कि इसका लाल रंग एक विशेष प्रकार का है । परामर्श का दूसरा भेद है स्यानानि यह नास्ति वोक या प्रभावात्मक परामर्शो का सामान्य रूप है । इसका है कि कोई एक 'स्यात् घडा काला नही है' विशेष घडा विशेष स्थान समय तथा परिस्थिति में काला नहीं है। परद्रव्य की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु अमत्य है । परामर्श या नय का तीसरा रूप है-स्वात् प्रस्ति व नास्ति च ; जैसे- 'घड़ा लाल है तथा नही भी लाल है ।' इससे यह बोध होता है कि घड़ा कभी लाल हो सकता है। तथा कभी दूसरे रंग का भी हो सकता है । वस्तु सत् तथा घसत् दोनों है ( दो भिन्न अर्थो मे ) चौबे प्रकार का नय है - स्यात् प्रवक्तव्यम् जिस परामर्श मे परस्परविरोधी गुणों के सम्बन्ध में एक साथ विचार किया जाता है उसका यथार्थ रूप 'स्वात् प्रवक्तव्यम्' होता है। घड़ा जब अच्छी तरह से नहीं पकता है तो कुछ काला रह जाता है । जब पूरा पक जाता है तो लाल हो जाता है । यदि यह पूछा जाय कि घड़े का रंग सभी समय मे तथा सभी अवस्थानों में क्या है, तो इसका एकमात्र सही उत्तर यही हो सकता है कि इस दृष्टि से घड़े के रंग के सम्बन्ध मे कुछ कहा ही नही जा सकता है । प्रनेकान्त - शेष तीन नय निम्नलिखित ढंग से प्राप्त होते है । पहले, दूसरे तथा तीसरे नयों के बाद अलग-अलग चौथे नय को जोड देने से क्रमश. पाँचवा छठा तथा सातवाँ नय बन जाते है । पहले और चौथे नयो को क्रमिक रूप से जोडने से पाँचवा नय बनता है - स्यात् प्रस्ति च प्रवक्तव्यम् च । दूमरे और चौथे नयों को क्रमिक रूप से जोड़ने में छठा नय बनना है स्वात् न स्तिपम् व इसी तरह तीसरे और चौथे नयो को श्रमानुसार जोड़ देने से सातवा नय बन जाता है— स्यात् प्रस्ति च नास्ति 'च प्रवक्तभ्य च । ( ४ ) स्यादवाद के सात मंग जैन ग्रन्थों में विभिन्न फर्मो में पाये जाते है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचनसार' गाथा (२-२३) में 'स्पात् धवक्तव्य' को तीसरा और 'स्यादस्ति नास्ति' को चतुर्थ भग रखा है। विन्तु 'पंचास्तिकाय' गाथा चौदह में 'प्रस्ति नास्ति' को तीसरा श्रीर 'वक्तव्य' को चतुर्थ भग रखा है। इसी तरह कलंक देय ने अपने 'तत्त्वार्थवार्तिक' में एक स्थल ( पृ० ३५३ ) पर 'प्रवचनसार' का क्रम अपनाया है और दूसरे स्थल ( पृ० ३३ ) पर पंचास्तिकाय' का क्रम अपनाया है । दोनो जैन सम्प्रदाय मे दोनो ही क्रम प्रचलित रहे है। दार्शनिक क्षेत्र में दूसरा ही क्रम प्रचलित रहा है अर्थात् 'प्रस्ति नास्ति' को तीसरा चौर वक्तव्य को चतुर्थ भग माना गया है । किन्तु मूल भंग तीन ही है- स्यादस्ति स्यान्नास्ति और स्यादवक्तव्य । श्रतः प्रवक्तव्य ही तीसरा, भग होना चाहिए। स्वामी समन्तभद्र ने अपने 'युक्त्यनुशासन' मे इसी मत को स्वीकार किया है । ( ५ ) कुछ पाश्चात्य तार्किको के विचारों के साथ स्याद्वाद की बड़ी समानता है। ये पाश्वात्य ताहिक भी कहते है कि प्रत्येक विचार का अपना-अपना प्रसंग या प्रकरण होता है । उसे हम विचार-प्रसंग कह सकते है । विचारो की सार्थकता उनके विचार-प्रसंगो पर ही निर्भर होती है। विचारप्रस मे स्थान, काल, दशा, गुण आदि अनेक बाते सम्मिलित रहती है विचार परामर्श के लिए इन बातों को स्पष्ट करने को उतनी घावश्यकता नहीं रहती है । साथ-साथ उनकी संख्या इतनी अत्रिक होती है कि प्रत्येक का स्पष्टीकरण सम्भव भी नहीं है । जैन स्वाद्वाद की तुलना कभी-कभी पाश्चास्य सापेक्षबाद (theory of relativity) से भी की जाती है। सापेक्षवाद दो प्रकार का होता है— विज्ञानवादी धौर वस्तुवादी विज्ञानवादी सापेक्षवाद के प्रवर्तक प्रोटागोरस |
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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