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________________ ६०, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त उत्तम सविचलित प्रखण्ड अदत परम चिद्रप के श्रद्धान, मंतरंग त्याग के साथ बहियंग त्याग का भी उपदेश दिया पान तथा अनुष्ठान रूप स्वभावरत्नत्रय मे अनुरत होते है। गया है। इस प्रकार साधु की चर्या वही है जिसमें प्रत ज्ञानी साधु का ज्ञानरूप परिणमन करना, यह मन्त- रग तथा बहिरग दोनों प्रकार के परिग्रह का किसी प्रकार रंग चर्या है। किन्तु बाहर में ज्ञान-ध्यान एवं अध्ययन मे ग्रहण नहीं होता । सभी प्रकार से स्वावलम्बी जीवन की में लीन रहना, स्व-समय में स्थिर होकर सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चर्या का नाम साधुचर्या है, जिसमे सम्पूर्ण स्वतन्त्रता का चारित्र का पालन करना पोर रत्नत्रय की भाराधना के सागर लहराता रहता है और जिस प्रात्मनिष्ठ साधना लिए अन्तरंग तथा बाहर सभी प्रकार के परिग्रहों से मुक्त मे मापक बने TET की पर्णता होकर महावतों एवं मूलगुणो का पालन करना प्रार्ष श्रमण जारी की हो अत: बाहरी जीवन की प्रत्येक किया में उसे अपनी प्रात्ममार्ग है। ऐसे ही साधु वीतरागी गुरु कहे जाते हैं। बीत चर्या का मानन्द रस का ही स्वाद संवेदित होता रहता रागता की पूर्ण उपलन्धि ही उनका चरम लक्ष्य होता है । प्रत: बाहरी क्रियानों में जैन साधु को क्लेश एव है। वे स्वयं वीतरागता के एक शिखर होते है। इसलिए उस शिखर पर अधिरोहण करने की पीड़ा का अनुभव न होकर प्रानन्द रस का उच्छमन ही की इच्छा से नैतिकता को अपनी व्यवहार बुद्धि से धर्म होता है । जैनागमों में जैन यतियों, मुनियों तथा साधुओं मानने वाला श्रावक उनसे वीतरागी-मार्ग को शिक्षा व का चयो का यही रहस्य उद्घाटित किया गया है कि वे उपदेश प्रात्त करता है । उनके वीतराग-चारित्र मे चीबीसो प्रात्मज्ञान से भीतर-बाहर प्रकाशित होते हए प्रात्म-चर्या घटेमानन्द की धारा प्रवाहित होती रहती है । उनके यम, मे निरत रहते है, लौकिक किंवा व्यावहारिक जगत के नियम, व्रत, उपदेश प्रादि सभी एक-रस धारा से प्राप्यायित ढंग से परे रहते है एवं प्रदत की समरसी भमिका को होते रहते है । वहां शान्ति व प्रानन्द के सिवाय, ध्यान व प्रलोकित करते रहते है।100 अध्ययन के अतिरिक्त जगत का कोई व्यापार नही चलता। २४३, शिक्षक कालोनी, नीमच मध्य प्रदेश प्रतः साधु सब प्रकार से नग्न होकर-तन से, मन से, विकारो से यथार्थ मे त्यागी होता है। जो केवल वस्त्र 'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण को साधुत्व के लिए बाधक समझता है, वह साधु चर्या के योग्य नहीं हो पाता, क्योकि आत्मचर्या मे वस्त्र बाधक | प्रकाशन स्थान--वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागज, नई दिल्ली नही है, किन्तु वस्त्र का परिग्रह बाधक है। मद्रक-प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के निमित्त जो वस्त्र का परिग्रह किए हुए है, वह उसकी श्री मोमप्रकाश जैन प्रासक्ति से परे नही हो सकता। अतः तृणमात्र भी घारण प्रकाशन प्रवषि-मासिक करना अपरिग्रह महाव्रत से बाहर है। पूर्ण प्रपरिग्रही राष्ट्रिकता-भारतीय तिल, तुष मात्र भी परिग्रहण नहीं कर सकता। केवल पता-२१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ बाहर वसनों को प्रोढना ही परिग्रह नहीं है किन्तु प्राहार सम्पादक-श्री गोकुलप्रसाद जैन मे प्रासक्ति रखना, अमुक वस्तु मे स्वाद लेना, ससार के राष्ट्रिकता-भारतीय विषयों के प्रति रुचि या चाह होना, अपने नाम व यश | पता-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागज, नई दिल्ली-२ की कामना करना, मेरा कोई अभिनन्दन या स्वागत करे, स्वामित्व-वोर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ ऐसा विकल्प होना, किसी के अच्छे बुरे की पभिलाषा मैं, मोमप्रकाश जैन, एतद्वारा घोषित करता हूं कि करना,मभी परिग्रह कोटि में है । प्रतः सच्चा त्याग अत- | मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपयुक्त रंग का माना गया है। किन्तु बाहरी साधनो को देखकर विवरण सत्य है। -मोमप्रकाश जैन, प्रकाशक मंतरंग के परिग्रह का अनुमान किया जाता है । इस कारण
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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