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________________ नारी और जीवन-मल्य : अपभ्रश जैन साहित्य के संदर्भ में साध्वी साधना जैन, दिल्ली समाज में नारी का स्थान या नहीं, बल्कि यह भी कि मोक्षमार्ग मे नारी कितनी नारी की सज्ञा प्रर्धागिनी जैन सस्कृति में भी प्रचलित मागे बढ़ सकती है और किस प्रकार बढ़ सकती है, यह है। चतुर्विध संघ में श्राविकाओं को श्रावको के ही समान विषय भी विवादग्रस्त है। एक विधान तो यह है कि अधिकार प्राप्त है। दैनन्दिन जीवन मे भी नारी का नारी दो तीन जन्मो के पश्चात् पुरुष के रूप में जन्म कृत्य पुरुष के कृत्य के समकक्ष ही होता है । लकर ही मोक्षमार्ग पर चलती हुई मुक्त हो सकती है और नारी के रूप में वह पचम गुणस्थान तक ही बढ़ सकती प्रात्मिक उत्थान में नारी की सीमा है। इसके विपरीत जो विधान है उसके अनुसार नारी पात्मिक उत्थान में नारी किन्हीं अर्थों में पुरुष से तदभव मोक्षगामी हो सकती है, उसे जन्मातर को प्रतीक्षा भागे रहती है। इसका एक मुख्य कारण समाज को नही करनी होती और गुणस्थानों के प्रारोहण मे भी वह व्यवस्था और प्रकृति की देन है । जीवन के कुछ अनिवार्य स्वतन्त्र है। काम केवल पुरुष ही कर सकता है या उसके द्वारा किये नारी अवस्था मे मोक्ष के पक्ष मे तर्क है कि जन्मातर जाने पर ही वे सफल होते है। इससे नारी को जो समय की प्रतीक्षा किये बिना ही नारी मोक्ष प्राप्त कर सकती बच रहता है उसमें वह प्रात्मा की ओर उन्मुख हो लेती है क्योंकि नर और नारी में शक्ति, बुद्धि, चातुर्य, साधना है। यही कारण है कि धर्माचरण और घामिक उत्सवों प्रादि की दृष्टि से ऐगा कोई भी अन्तर न तो प्रकृति-दत्त मे नारियों की सख्या पुरुषों मे कही अधिक होती है। है और न ममाज-विहित या शास्त्र-विहित हो, जो मोक्षनारियां मात्मिक उत्थान में स्वय तो प्रवृत्त होती ही है, मार्ग में उन दोनो मे कोई अन्तर डालता हो; जो अन्तर पति पोर बन्धुनों को भी उसकी प्रेरणा देती है। तथापि अन्यत्र प्रदर्शित किये गये है वे निर्विकार और सहृदय उनकी कुछ सीमाएं है, इसीलिए अन्ततोगत्वा पुरुप ही भाव से शून्य प्रतीत होते है क्योकि पुरुष शास्त्रकारो द्वारा इस क्षेत्र मे मागे निकल जाता है। समाज और मस्कृति जब-तब ऐसे विधान प्रस्तुत किये जाते रहे हैं जिनमे नारी के विषय में जो जैन महिताएं है, उनमे नारी को को सीमाबद्ध, हीनतर, अक्षम प्रादि मिद्ध किया गया है। पुरुष के समकक्ष ही रखा गया है। वैदिक महितामो पौर शास्त्रो मे यदि नारी को मोक्ष न हो पाने के उदा. की भाति जैन सहितामो में नारी की पूजा का प्रतिफल हरण मिलते है तो मोक्ष होने के उदाहरण उनसे कही देवतामों का निवास घोषित नहीं किया गया, किन्तु नारी अधिक मिलते है। नारी अवस्था में मोक्ष के विपक्ष मे को किसी भी दृष्टि से हीन या अनधिकृत भी नही कहा गया। इतना अवश्य है कि वैराग्य, ब्रह्मचर्य प्रादि के तर्क है कि नारी तद्भव मोक्षगामी नही है : क्योकि शारीरिक संरचना भोर सामर्थ्य तथा मनोभूमि की सीमाएँ संदर्भ मे अन्य सासारिक वस्तुपों की भाति नारी को भी नारी के साधना के उस केन्द्र तक पहुंचने मे बाधक है, एक बाधा के रूप में लिया गया, पर यह बात वैदिक । और बौद्ध सहितानो मे भी ऐसी ही है। जो भी हो, यह जिस तक पुरुप अपेक्षाकृत सरलता से पहुंच सकता है, विचित्र बात है कि वैराग्य ब्रह्मचर्य आदि के प्रसग मे नारी की मोक्ष प्राप्ति का निषेध उसके तद्भव में ही पुरुष के लिए नारी तो बाधा बतायी गयो पर नारी के तो है, भवान्तर मे तो नही, और वह निषेध भी जिन्होंने किया, वे शास्त्रकार स्वयं नर थे या नारी यह तो ज्ञात लिए पुरुष को बाधा के रूप मे नही दिखाया गया। नहीं पर यह अवश्य ज्ञात है कि वे राग-द्वेष से परे थे, नारीप्रवस्था में मोक्ष का प्रश्न यदि वे राग-द्वेष से परे न रहे होते तो उनके इसी एक नारी को ये सीमाए' क्या हैं, यह एक विवादग्रस्त विधान पर ही नहीं अन्य भनेक विधानों पर भी भापत्ति विषय है। यही नहीं कि नारी मोक्ष प्राप्त कर सकती है उठायी जानी चाहिए थी; प्रकृति या स्वभाव से ही नारी
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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