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________________ १३२, वर्ष ३०, किरण 1२ अनेकांत पुष्पवृष्टि करती दिखाई गई है। यक्षिणी का वाहन सिंह अंकित हैं। सभी जिनप्रतिमाएँ पद्मासनस्थ हैं तथा वे उसके पैरों के पीछे है। सहस्र की सख्या में है। सभी के मस्तक के पीछे पद्माकृति एवं तेजोमंडल है। भुत देवियाँ कलचुरिकालीन मूर्तियों के समस्त उदाहरणों का जैन देवी-देवतामों में ज्ञान की अधिष्ठात्री सरस्वती सर्वेक्षण वह सिद्ध करता है कि इनके रूपायन में शिल्पकारो र देवी का विशिष्ट स्थान है। दिगम्बर संप्रदाय के अनुसार ने सुनिश्चित परम्परा और मान्य प्रतिमालक्षण का प्रनइसका वाहन मयूर एवं श्वेताम्बर संप्रदाय के अनुसार ___डाहल क्षेत्र की कला उच्चकोटि की है। महाकोशक कलचुरि कला मे श्रुत-देवियों की प्रतिमाएँ अत्यल्प की कला गे रतनपुर क्षेत्र की कला में रूविवादिता अधिक हैं। कारीतलाई से सरस्वती की एक मूर्ति मिली है जो एवं मौलिकता कम है। यहाँ की कला मे हमे मौलिकता मौलिक रायपुर सग्रहालय मे सुरक्षित है। प्रतिमा अत्यन्त खडित एवं चास्ना तथा भावाभिव्यक्ति के व मे दर्शन नही होते .. है। देवी का मस्तक और हाथ खडित है । प्रभामण्डल पूर्ण जैसे त्रिपुरी एवं उसके निकटवर्ती क्षेत्रो की कला में होते एवं स्पष्ट है। ललितासनारूढ देवी के तन पर विभिन्न है। प्राभूषण हैं । चतुर्मजी देवी के दक्षिण निचले एवं वाम दक्षिण कोगल के गिल्पी एक विशेष प्रकार के काले ऊर्ध्व हस्त मे वीणा है। दोनों पोर विद्याधर है। प्रस्तर का प्रयोग करते थे। यहां की मूर्तियो के प्रोष्ठ पूर्वपिक्षा लम्बे और पतले है। मुखमण्डल की गोलाई और अन्य चित्रण लम्बाई के मान मे भी अन्तर मिलता है। इसके अन्तर्गत सर्वतोभद्रिका व सास जिनबिम्ब का त्रिपुरी शैली की अपनी कुछ विशेषताएं है जैसे-मति वर्णन किया गया है। एक सर्वतोभद्रिका प्रतिमा कागतलाई का मुखमण्डल गोल न होकर अडाकार है। ठडडी कुछ से प्राप्त हुई हैं। इसका शीर्प भाग शिखरयुक्त है तथा उभरी और नकली है। भौहो, पलको एव नासिका से ग्रंकन इसके चारों पोर एक-एक तीर्थकर पद्मासन में ध्यानस्थ मे वृछ नुकीलापन है । पोष्ठ, बक्षस्थल, कटिप्रदेश इत्यादि बैठे हैं। चार तीर्थकरो मे से केवल पाश्र्थनाथ ही स्पष्ट- के अकन मे कलाकार ने सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दिया है। रूपेण पहिचाने जा सकते है। अन्य तीन सम्भवत विवेच्य युगीन शिल्पकला में यद्यपि रूप-रम्यता के ऋषभनाथ, नेमिनाथ एवं महावीर है, क्योकि सर्वतोभद्रिका के साथ सामान्य से सामान्य बातो को प्रकट करने का पूर्ण प्रतिमानो मे चार विशिष्ट तीर्थकरो के चित्रण की ही प्रयत्न किया गया है तथापि इस मूर्तिकला पर गुप्तकालीन परम्परा है। कला का प्रभाव निश्चित रूप से दृष्टिगोचर हाता है। रायपुर सग्रहालय में कारीतलाई से प्राप्त एक स्तभा- कलचुरिकालीन जैन प्रतिमानो मे चदेलो की अपेक्षा अधिक कृति शिल्पखण्ड पर सहस्र जिनबिम्ब उत्कीर्ण है । यह न सौकुमार्य, उत्तम अगविन्यास एव सुन्दर भावो की अभिग्रन्थो मे वणित सहस्रकुट जिनचैत्यालय का प्रतीक है। व्यक्ति के साथ-साथ शरीरगत एव भागवत लक्षण उत्कृष्ट इसके चारों पोर छोटी-छोटी बहुत-सी जिन प्रतिमाएँ है। कला मे मौलिकता के दर्शन भी होते है । F
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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