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________________ कलचुरिकालीन जैन शिल्प संपदा द्वितीपिक प्रतिमाएँ-कलचुरिकालीन तीर्थंकर प्रति- के ऊपर स्थित प्राम्रवृक्ष वाला भाग खंडित है । प्रतिमा मानों की प्रासन एवं स्थानक मुद्रा में द्वितीथिक प्रतिमाएं का केशविन्यास सुन्दर है। सर्वाभरण भूषित इस प्रतिमा भी हैं। इनमें स्थानक प्रतिमाएँ अधिक हैं। अधिकांश प्रति- के दोनों पावों में एक-एक परिचारिकाएं खडी हैं । दक्षिण माएं कारीलाई से प्राप्त हुई हैं तथा वे श्वेत बलुपा पार्श्व की परिचारिका अपने वाम हस्त में प्रधोवस्त्र पकडे प्रस्तर से निर्मित है। है, उसके दक्षिण हस्त में सम्भवत: पदम है। प्रतिमा विज्ञान कारीतलाई से प्राप्त द्विर्तीथिक प्रतिमाएँ कला की दृष्टि की दृष्टि से यह मूर्ति १०वीं सदी की ज्ञात होती है। से उत्कृष्ट है। इनमें से प्रत्येक में दो-दो तीर्थकर कायोत्सर्ग तेवर के बालसागर नामक सरोवर के मध्य में स्थित एक अथवा ध्यान मुद्रा में अकित हैं। उनकी दृष्टि नासिका के प्राधुनिक मंदिर मे एक उत्कृष्ट अभिलिखित शिलापट्ट सुरअग्र भाग पर केन्द्रित है। तीर्थकों के साथ अष्टप्रतिहार्यों क्षित है। यह अलंकृत स्तम्भो द्वारा तीन कक्षो में विभक्त के अतिरिक्त उनके शासनदेवो तथा लांछन का अकन है। है। मध्यवर्ती कक्ष में तीर्थकर पार्श्वनाथ की चतुर्मन उपलब्ध प्रतिमाएं ऋषभनाथ एवं अजितनाथ, यक्षी पदमावती पदमामन मे मामीन है। उसके ऊपरी दोनों अजितनाथ एवं संभवनाथ, पुष्पदंत एवं शीतलनाथ, धर्मनाथ हाथों मे सनाल पद्म और बाएं निचले हाथ मे पूर्ण कलश एव शातिनाथ, मल्लिनाथ एव मुनिसुव्रतनाथ तथा पाश्र्वनाथ है। निचला दायां हाथ अभय मुद्रा में है। मस्तक के ऊपर एव नेमिनाथ की है। सात फणों से युक्त नाग उत्कीर्ण है जो पाश्र्वनाथ का शासनदेवियाँ लांछन है। शेष दो कक्षो में विविध प्रायुध लिए चतुर्भजी यक्षिणिया उत्कीर्ण है। निचले भाग पर १०वी शती ईसवी कलचुरि कला में जैन शासनदेवियों की प्रतिमाएँ स्था की नागरी में 'श्री वीरनन्दि प्राचार्यन प्रतिमाया करापिता' नक एव प्रासन दोनो मुद्रामो मे प्राप्त हुई है। लेख उत्कीर्ण है। इससे पता चलता है कि इस पट्ट का प्रासन प्रतिमाएं -प्रासन प्रतिमामो में अविका,, निर्माण प्राचार्य वीरनन्दि ने कराया था। चक्रेश्वरी, एवं पद्मावती की प्रतिमाएं प्रमुख है । इनके सोहागपुर की दो मूर्तियो मे मे प्रथम मूति सूपावं अतिरिक्त सोहागपुर (शहडोल) से कुछ अन्य शासनदेवियों अथवा भगवान् पाश्र्वनाथ (कलिका या पद्मावती) से की मूर्तियाँ प्राप्त हुई है जिनका समीकरण लांछन के प्रभाव सबंधित है क्योकि देवी के मस्तक पर विराजित जिन में संभव नही है। प्रतिमा के मस्तक के ऊपर सपंछत्र है। देवी के मस्तक पर देवी अंबिका तीर्थकर नेमिनाथ की यक्षिणी है। यह भी सर्पछत्र है। द्वादशभूजी इस प्रतिमा के वामहस्तो मे सिंहारूढ़ एवं हाथो में प्राम्रगुच्छ, पुष्पगुच्छ, शिशु एवं चक्र, वज्र, परशु, अगि, गर तथा छठा हस्त वरदमुद्रा में अंकश लिए हये चित्रित की जाती है। इसके माम्रगुच्छ प्रदर्शित है। दक्षिण हस्तो मे धनु, अंकुश, पाश, दंड, पद्म प्रतीक के कारण ही इसे पाम्रादेवी कहा जाता है। तथा एक हाथ खंडित है। ___कलचरिकालीन अम्बिका की प्रतिमानो में रायपुर स्थानक प्रतिमाएं-जैन शासन देवी की स्थानक प्रतिसंग्रहालय में संरक्षित, कारीतलाई से प्राप्त प्रतिमा माएँ अल्पमात्रा में मिली है। इनमे कारीतलाई से प्राप्त कलात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। सफद छोटेदार रक्त तथा रायपूर संग्रहालय में सुरक्षित अविका की प्रतिमा बलमा प्रस्तर से निर्मित यह प्रतिमा ललितासन मुद्रा मे महत्त्वपूर्ण है। सिंहारूढ़ है। अम्बिका का वाहन सिंह ही है । द्विभुजी इस अबिकादेवी पाम्रवृक्ष के नीचे एक सादी चौकी पर प्रतिमा के दाहिने हाथ मे पाम्रलुम्बि है एवं बायें हाथ से वह त्रिमंगमद्रा में खडी है। द्विभुजी प्रतिमा के दाहिने हाथ अपने कनिष्ठ पुत्र प्रियशंकर को पकड़े हुए है। प्रियशकर मे प्राम्रलुबि है एवं बाएं हाथ मे वह कनिष्ठ पुत्र प्रियशंकर उसकी गोद में बैठा हुप्रा है। अम्बिका का ज्येष्ठ पुत्र को गोद में उठाये है, ज्येष्ठ पुत्र शुभशकर पंगे के निकट शुभंकर अपनी माता के दाहिने पाद के निकट बैठा हुमा खड़ा है। ग्राम्रवृक्ष पर नेपिनाथ की छोटी-मी पद्मासनस्थ है। अम्बिका का मुस्कराता हुमा मुख सौदर्यपूर्ण है। मस्तक प्रतिमा है। वृक्ष के दोनो पोर खड़ीक एक विद्याधरी
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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