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________________ श्रमण संस्कृति की प्राचीनता : पुरातत्त्व और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत मन्त्र में भगवान ऋषभदेव द्वितीय तीर्थङ्कर इसकी पुष्टि राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन," डा. अलब्र. अजितनाथ तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ और चौबीसवें खेवर". प्रो० विरूपाक्ष, डा. बिमलाचरण लाहा", जो भगवान वर्धमान का स्पष्ट उल्लेख हुमा है। गी० जन"प्रभति विद्वज्जन भी करते है। अप्पा ददि मेयवामन रोदसी इमा च विश्वाभुवनानि । प्रो. विरूपाक्ष वाडियर वेदो मे जैन तीर्थ छरों के मन्मना यथेन निष्ठा वषभो विराजास ॥ उल्नेखों का कारण उपस्थिन करते हुए लिखते है 'प्रकृति-सामवेद, ३ प्र. १ खंड वादी मरीचि ऋषभदेव का पारिवारिक था।" वेद उसके सामवेद के इस मन्त्र में भी भगवान ऋषभदेव को तत्त्वानुसार होने के कारण ही ऋग्वेद प्रादि ग्रन्थों को समस्त विश्वज्ञाता बताया गया है। महत्वं न वृषभं वावृधानमकवारि दिव्य । ख्याति उसी के ज्ञान द्वारा हुई है। फलत. मरीचि ऋषि शासनमिद्र विश्वा साहम वसे नतनायोग्रासदो दा मिहंता के स्तोत्र वेद-पृगण ग्रादि ग्रन्यो में है और स्थान-स्थान ह्वयेमः। * . ट पर जैन तीर्थंकरो का रुख पाया जाता है। कोई ऐमा समिद्धस्य परम हसो वन्दे तवधियं वृषभो गम्भवानसिम वारण नहीं है कि हम वैदिक काल म जैन धर्म का मध्वोष्विध्यस। -- ऋग्वेद ४ अ० ४ व ६-४-१२२ अस्तित्व न माने । उपर्युक्त मन्त्रों में तीर्थकर वाचक शब्द श्री वृपभ- ऊार के सक्षिप्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर देव की महिमा का गान करते हए जैन संस्कृति को पहचत है कि श्रमण सस्कृति भारत की एक महान सम्कृति वेदो से भी प्राचीन प्रमाणित कर रहे है। और सम्यता है जो प्रागतिहासिक काल में ही भारत के पाश्व, अरिष्टनेमि तथा महावीर : विविध अचलो मे फलती और फलती रही है। यह सुपाश्र्वनाथ", अरिष्टनेमि तथा महावीरादि तीर्थ सम्कृति वैदिक संस्कृति की धारा नहीं है, अपित एक दूरों की स्तुति का वेदों में तथा वेदोत्तरकालीन साहित्य में स्वतन्त्र सस्कृति है। इस सरकृति की विचारधारा वैदिक उल्लेख हुमा है प्रातिथ्यरूपं भासरं महावीरस्य नग्नहुः । मस्क्रति की विचारधारा से पृथक् है। रूपमुपदामेततिस्त्रो रात्री सुरासुता ।५ इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि जैन सस्कृति, जिसे श्रमण यजर्वेद के उपरोक्त मन्त्र में भगवान महावीर का संस्कृति कहा गया है, वैदिक और बौद्ध सस्कृति से पूर्व नामोल्लेख स्पष्ट है। की संस्कृति है, भारत की प्रादि संस्कृति है। COD उपर्युक्त मन्त्रों मे तीर्थङ्करों (ऋषभदेव, सुपाव, जैन दर्शन विभाग, अरिष्टनेमि, महावीर प्रादि) का उल्लेख किया गया है। राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर (राज.) ६२. (१) ऊं सुपावभिन्द्र हवे। -यजुर्वेद स्वस्ति न स्ताक्ष्यो अरिष्टनेमि, (२) ज्ञातारमिन्द्रं ऋषभ वदन्ति स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।। प्रतिचारंमिन्द्र तमपरिष्टनेमि भवे भवे । -सामवेद प्रपा०६०३ सुभवं सुपाश्र्वमिन्द्रं हवेतु शक्र । १४. देववाहिवर्धमानं सुवीर, स्तीर्ण राये सूमर वेद्यस्याम । अजितं तद् वर्द्धमान पुरुहूतमिन्द्रं स्वाहा ।। तनाक्तवसव. सीदतेद, विश्वे देवा यादित्याय जियः सः ।। १३. (१) ऊ रक्ष रक्ष अरिष्टनेमि स्वाहा। -यजुर्वेद - ऋग्वेद म० २ ० १, मूबत ३ (२) त्वा रथ वयद्याहुवेमस्तो मेरश्विना सविताय नव्य : ६५. यजुर्वेद - प्र. १६ मं० १४ । अरिष्टनेमि परिद्यामियानं विद्यामेषं वजनं. ६६. Radha Krishnan Indian Philosophy, जीरदानम् ॥ - ऋग्वेद अ० २ म०४ व २४ Voll, pp 287. (३) वाजस्यनु प्रसव पावभूबेमा, ६७. Indian Antiquary, Vol. 3. pp. 90. च विश्वा भुवनानि सर्वतः । १८. जैन पथ प्रदर्शक (भागरा) भा० ३, प्र० ३, पृ. १०६ स नेमिराजा परियाति विद्वान्, EE. Historical Gleanings, pp 78. प्रजां पुष्टि वघेयमानो असो स्वाहा ।। १००. अनेकान्त-वेदो में गजते जन सम्वृति के स्वर .. -यजुर्वेद भ०६ मा २५ मार्च १६७१. वप: J० ३६ ३७ । (४) स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः, १०१. प्रजन विद्वानो की मम्मलिया, जन पर प्रदर्शक, स्वस्ति न पूषा: विश्वेदेवाः। (गिग) भाग-३, पृ. ३१, ।
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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