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________________ उदारमना सदाशय व्यक्तित्व डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच जैन समाज के ही नहीं, भारतीय संस्कृति एव पाती । साहित्य के क्षेत्र में एक लाख का पुरस्कार प्रवर्तित सदीय जीवन के अभ्युदय मे साह-परिवार का अत्यन्त कर, राष्ट्र के साहित्यकारों में विशेष अभिरुचि का उन्नयन मरखपणं योगदान रहा है। स्व० शान्तिप्रसाद जी कभी कर, एक एसे साहित्यिक व सांस्कृतिक वातावरण का सीमित संक्रमित दायरो तथा सकाणं विचार- निर्माण कर, दक्षिण तथा उत्तर. पवं वं पनि न म कर सदा उस राजमार्ग मे रहे जा क्षितिजों की दूरी समाप्त कर, सभी भारतीय भाषानों बीयता एवं सार कृतिक गौरव गरिमा के प्रादर्श के के साहित्य को ज्ञानपीठ (वस्तुतः ज्ञानपीठ) के मंच से अनुरूप हो। इसलिए उनके व्यक्तित्व में जिस उदारता, प्रकाशमान किया है। इधर दक्षिण की भाषाप्रो के प्राचीन विशालता का परिचय मिलता है वह सहज व स्वाभाविक साहित्य को प्रकाशित करने की ज्ञानपीठ की अभिनव हजनकी वत्ति का परिचय इससे भी मिलता है कि योजना ने यह भली भाति प्रकट कर दिया है कि प्राचीन सदा प्राशावादी तथा प्रादर्शवादी रहे है। व्यक्तिगत साहित्य व अभिनव उत्कृष्ट साहित्य किसी क्षेत्र का तथा सामाजिक संघर्षों में उनकी भूमिका उस नेता की व किसी भी भाषा का हो, चाहे वह पुराना हो, चाहे नया भांति रही जो सदा अपनी सदाशयता से क्षुद्रता को प्रव हो, उसमे साहित्यिक सर्जना व प्रतिभा का यदि कोई भी हेलना कर उदारता को प्रशस्त करने वाला हो। यही महत्वपूर्ण पायाम लक्षित होता है, तो वह ज्ञानपीठ स्तर कारण है कि जैन समाज ने उनको माना व सराहा और के अनुरूप प्रकाशित हो सकती है । इस सस्था का निर्माण उनके नेतृत्व को सदा प्राप्त करते रहने की अभिलाषा करने मे स्व० साहू जी अग्रणी रहे है और इसके संचालन प्रकट की। किन्तु समाज का दुर्दैव ! ऐसे श्रीमान, धीमान, का समस्त श्रेय स्व० रमादेवी तथा श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन को निःस्वार्थ समाजसेवी का नेतत्व अधिक समय तक नही रहा है । यह कहने मे कोई संकोच नही है कि भारतीय मिल सका। नियति के कालचक्र ने सदा-सदा के लिए संस्कृति की गौरव-गरिमा को प्रकाशित करने में भारतीय उनका अपहरण कर लिया। ज्ञानपीठ का विलक्षण स्थान रहा है। हिन्दी साहित्य यों तो स्व० साह जी के कीर्तिमान को प्रकट करने तथा इतर भाषामों के साहित्यकार इस संस्था से अपने को के लिए एक भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन ही पर्याप्त है, गौरवान्वित मानते रहे है। जिसने न केवल सास्कृतिक प्रकाशनों का कीर्तिमान स्था- इस छोटे से लेख मे स्व० साह जी के उन शत-शत पित किया, वरन् विलुप्त होने वाली ऐसी पाण्डुलिपियो उपकारोंका स्मरण करना सम्भव नही है जो उन्होंने व्यक्तिको भी पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। जो भारतीयता गत रूप से तथा सामाजिक रूप से व्यक्ति तथा समाज के की अक्षुण्ण धरोहर है और जिनसे भारतीय भाषामों का निर्माण के लिए किए थे। इन सबके अतिरिक्त मेरे मन विशाल भण्डार समद हमा है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश की अन्तछवि में उनका वह सरल, सहृदय एव उज्ज्वल पौर हिन्दी भाषा के साहित्य को अभिनव, सुरुचिपूर्ण तथा व्यक्तित्व बार-बार प्रतिबिम्बित लक्षित होता है जो सांस्कृतिक स्तर के अनुरूप रम्य एव भव्य रूप में प्रकाशित अपने निर्णय मे उदारता व स्वतन्त्रता को प्रकट करने कर ज्ञानपीठ ने एक संस्था के रूप में जो कार्य किया है, वाला है । जो भी एक बार उनके सम्पर्क में पहुंचा है वह कई संस्थाएं मिल कर भी सा कार्य सम्भवतः न कर (शेष पृष्ठ १८ पर)
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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