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________________ सरस्वती के परम उपासक डा. कस्तूर चंद कासलीवाल, जयपुर माह शान्तिप्रसाद जी जैन देश एवं समाज के उन एक बृहद् जैन प्रदर्शनी के अवसर पर उनसे मेंट हुई थी। ठरतों में से थे जिनकी सेवाएं सदा अविस्मरणीय देहली में भी उन्होंने प्रदर्शनी के प्रायोजन में पूरी रुचि रहेंगी तथा जिनका नाम भविष्य में उदाहरण के रूप में ला था तथा वहा प्रदशित प्रत्येक वस्तु का उन्होने बारीकी लिया जाता रहेगा। साह जी समाज के गौरव थे। उनके से प्रध्ययन किया था। उन्होंने उस समय जयपर के प्राश्रय में समस्त जैन समाज निश्चिन्त था। वे एक महान् प्राचीन भक्तामर स्तोत्र की सचित्र पाण्डलिपि को अपनी व्यक्ति थे जिनके हृदय में समाज का दर्द छिपा हुप्रा था। प्रोर से छापने का प्रस्ताव रखा था लेकिन जयपुर के इसलिये साहित्यिक, सामाजिक एवं सास्कृतिक सभी गति- मन्दिर के व्यवस्थापकों ने उसे स्वीकार नही किया विधियों के विकास मे उनका वरद हस्त रहता था। वह बहुमूल्य ग्रन्थ प्रकाशित होने से रह गया। समाज में उनकी उपस्थिति ही कार्यकर्तामों में उत्साह जयपुर में भगवान महावीर की 5 सौ में निर्वाण पैदा करने के लिये पर्याप्त मानी जाती थी। साहू जी महोत्सव की मीटिग मे मम्मिलित होने के लिये वे कितनी समस्त दि. जैन समाज के एक मात्र प्रतिनिधि थे, इस- ही बार पाये। जयपुर में उनका अन्तिम प्रागमन उनकी लिये जिस भी उत्सव, मेने एवं कार्यक्रम में साहू जी सम्मि- मृत्यु के कुछ ही समय पहिले हपा था। वे भाद्रपद मास लित हो गये तो ऐसा माना जाता था कि मानो पूरे समाज में बापूनगर के 115Hथ जन मण्डल द्वारा प्रायोजित का ही जमे समर्थन मिल गया हो। युवा सम्मेलन में कुछ समय के लिये पाये थे और युवकों साहशान्तिप्रसाद जी जैन ने समान पर 30-40 वर्षों को सामाजिक सेवा में जुट जाने की प्रेरणा दे गये थे। वह तक एक छत्र शासन किया। उन्होने समाज को नयी सम्भवतः उनका प्रन्तिम संदेश था। दिशा प्रदान की, कार्य करने की शक्ति दी तथा संकट के साहू जी को सारित्य से कितना प्यार था, उसके समय उमा जिा प्रकार साथ दिया वह मब इतिहाम प्रकाशन में उनकी कितनी रुचि थी, इसका प्रत्यक्ष की प्राज प्रमूल्य धरोहर हो गयी है। उनके निधन से उदाहरण उनका भारतीय ज्ञानपीठ जैसे संस्था का संचालन समाज ने वास्तव में अपना बहुमूल्य रत्न खो दिया है है। उन्होने सैकडो जैन ग्रन्थो के उद्धार कर महान पण जिसकी पूर्ति निकट भविष्य मे सम्भव नहीं लगती। यदि प्रजन किया । वे जीवन भर जिनवाणी के प्रकाशन एवं सामाजिक इतिहास के पृष्ठों को खोल कर देखा जाए तो उसके प्रचार-प्रसार में समर्पिन रहे । वास्तव मे गत हमे मालूम पडेगा कि ऐसा उदारहृदय समाजसेवी व्यक्ति संकडो वर्षों मे उन जंमा जिनवाणी का प्रचारक नही गत संकड़ों वर्षों मे नही हुमा। हुमा। साहू जी से मेरी प्रम भेंट कलकत्ता महानगरी में उन्होंने भारतीय ज्ञानपीठ के माध्यम से ही साहित्य बेनगन्छिया मे प्रायोजित जैन साहित्य एवं कला प्रदर्शनी सेवा नहीं की किन्तु अन्य प्रकाशन संस्थानों को भी उन्होंने में कोई 28 30 वर्ष पूर्व हुई थी। उस समय उन्होने जिस खूब प्रार्थिक सहायता दी है । वीर सेवा मन्दिर द्वारा तन्मयता से जन प्रथो मे रुचि ली थी तथा अपने भाषण प्रकाशित जैन लक्ष्णावली के प्रकाशन में भी उनका पर्याप्त मे उनके महत्व पर प्रकाश डाला था, उससे मेरे मन पर मार्थिक योगदान रहा। मैंने स्वयं ने समस्त हिन्दी जैन गहरी छाप पड़ी थी। उसके पश्चात देहली मे प्रायोजित साहित्य के प्रकाशन के लिये जयपुर में जब श्री महावीर
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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