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भरत और भारत
(श्री नाभि से दी है । ६३वीं पीढ़ी में श्री रामचन्द्र जी है। धर्मनीति, विद्यानीति और संस्कृति आदि मे भरत जाति राजा 'मुदास' ५२वी पीढी मे है । ५३वी में कल्याषपाद, प्रायों में अग्रणी थी। उसके विस्तार और प्रभाव से सारा ५४वी मे सूर्यकर्मा ५५वी मे भमरण्य, ५६वी मे निघ्न, देश भारतवर्ष अथवा भरतो का देश कहलाया। यहां तक ५७वी मे रघु, ५८वी मे अनमित्र, ५६वी में दिलीप, कि देश की विद्या और कुल का नाम भो 'भारती' पड़ा। ६०वी मे रघु (द्वितीय), ६१वी में प्रज, ६२वी मे दशरथ प० जयचन्द विद्यालंकार ने अपने ग्रन्थ "भारतीय पौर ६३वी में श्रीराम है।
इतिहास की रूपरेखा" (प्र. सं. प्र. जि. पृ. १४६) मे द्वितीय रघ ६०वी पीढ़ी से रघ वश की उत्पत्ति लिखा लिखा है कि ऐसा सोचने का प्रलोभन होता है कि है । इस तालिका से यह सिद्ध होता है कि 'श्रीरामचन्द्र हमारे देश का नाम भारतवर्ष उसी भरत' (शकुन्तलाजी से ११ पीढी पूर्व 'सुदास', अर्थात् 'भरत-जाति' का दुष्यन्त-पुत्र) से हुआ है, किन्तु वह नाम (भरत) एक पौर अस्तित्व था। इसके पूर्व से ही देश का नाम 'भारत' प्रच- प्राचीन राजा ऋषभ पुत्र 'भरत' के नाम से बतलाया जाता लित था ।"
है और वह भरत या तो कल्पित है या प्रागैतिहासिक । मा सन १६४६ के हिन्द- विद्यालकार जी ग्रन्थ मे यह भी लिखते है कि "दुष्यन्तस्तान (ममाचार-पत्र) में लिखते है कि 'भारत' नाम पुत्र 'भरत' चद्रवंशियो के भिरमौर्य हए है। इनके पूर्वज
हमारी पर्वतम चद्रवंशीय थे । ये चद्रवशीय लोग भारत में बहत थोडे जाति है, रकवा गया है। उन्ही लोगों ने देश बमाया, समय पूर्व ही बाहर से पाये थे । इनका सबसे प्रथम गजा सभ्यता सस्कृति प्रदान की और नामकरण भी किया। जो भारत पाया, 'पुरुरवा' था। यद्यपि वह बडा प्रतापी पौराणिक साहित्य में 'भारत' शब्द का प्रयोग 'प्रावित'
द का प्रयोग 'सावितं' और वीर था, किन्तु उसको यहाँ विशेष सफलता नही की तरह मीमित प्रदेश के लिए नही किया गया है. अपित मिली, इसलिए वह अपने देश लौट गया। परन्तु उसकी समूचे देश के लिए हमा है। 'भरत' जाति की चर्चा विशेषत. संतान यहाँ ही बसी रह गई। शनैः शन: ये लोग अपनी ऋग्वेद, यजुर्वेद और ब्राह्मण-ग्रथो मे है ।
शक्ति बढ़ाते और अपने राज्य का विस्तार करते रहे। श्री ब्रह्मदत्त जी शर्मा ने २५ सितम्बर, सन् १९४६ के उस समय इस कुल का नाम 'ऐल' था। हिन्दुस्तान पत्र मे लिखा है कि वास्तविक स्थिति यह इम 'पुरुरवा' के पूर्व यहाँ 'पाय' रहते थे । उन्ही लोगों है कि "इस देश का प्रत्यन्त प्राचीन नाम का इस देग पर एकछत्र राज्य था । इन्ही सूर्यवंशियो से "भारत" था, जिसका वर्णन ऋग्वेद के तृतीय ऐलो का अनेक बार युद्ध हुप्रा, परन्तु इन युद्धो मे सदा विजय मण्डल एवं १०वें मण्डल के ७५वे सूक्त मे हुआ है। साथ सूर्यवंशियो की ही होती रही। इसी वश क महाप्रतापी राजा ही, भारत की मुख्य-मुख्य नदियो के नाम भी लिखे है। 'पुरु' का धनधोर युद्ध मूर्यवशियो से दाशराज-युद्ध' के नाम अनन्तर यजुर्वेद और अथर्ववेद में 'भारत' के मुख्य मुख्य से हुग्रा, जिसमे ६६००० सैनिक एव सेनाध्यक्ष मारे गए। प्रान्तों का भी निर्देश मिलता है । लेख के अन्तिम भाग में अन्त मे विजय सूर्यवंशियो की ही हुई। इसी 'पुरु' की लिखा है कि "वेदों से लेकर दूसरी शताब्दी तक ३१वी पीढो मे दुष्यन्त-पुत्र भरत हुए है, अर्थात् अनुमानिःसन्देह, एवं बारहवी शताब्दी तक विकल्प रूप में, इस नतः पृरु के १५०० वर्षों बाद ही शकुन्तला-दुष्यन्त पुत्र देश का अन्य देशों में भारत एवं भारतवर्ष नाम प्रसिद्ध था।" भरत जन्मा या ।
प्रो० राजबली पाण्डेय ने अपनी रचना "भारतीय प. जयचन्द विद्यालकार दे उपरोक्त कथन में मिद्ध इतिहास का परिचय"(पृ० १, द्वितीय सस्करण मे) लिखा है कि दुष्यन्न-शकुलाना-पुत्र भरत की १५वी पीढ', अर्थात् है कि "जिस देश मे हम बसते है, उसका प्राचीन नाम भारत. लगभग १५०० वर्षों पुर्व में ही इस भारतवर्ष की भूमि वर्ष है। जान पड़ता है कि 'भरत' के वंशजो की प्राचीन पर दो वशो का अस्तित्व था ---भरत वश (मूर्यवंश) और भरत जाति ने ही यह नाम देश को दिया है । राजनीति,
(शेष पठ ६६ पर)