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________________ बिहार के बिहारी : अप्रतिहत अर्हन्त D श्री लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज' एम० ए०, जावरा [जैसे ८४ लाख योनियों में मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ है वैसे ही मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ ग्रहन्त है । अर्हन् जैन और बौद्ध धर्मावलम्बियो के परम प्राराध्यदेव है । अर्ह पूजाया धातु से शतृ प्रत्यय होकर ग्रहत शब्द बना, इसके प्रथम सम्बोधन में ग्रहन शब्द बना, जिसका अर्थ पूजनीय है और यह उसकी पूज्यता का ही प्रभाव है कि उसे वैदिक, जैन पौर बौद्ध तीनो सस्कृतियों ने अपनाया। विचार के बिन्दु से प्रहन्त शब्द का इतिहास प्रत्यन्त प्राचीन है। वराहमिहिर सहिता, योगवाशिष्ठ, वायुपुराण, भागवत, पद्मपुराण और विष्णुपुराण, शिवपुराण मे इस शब्द का उल्लेख है । अप्रतिहत प्रहन्त का यहाँ जैन-बौद्ध दृष्टि से सक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत है।] बिहार प्रदेश का नाम बिहार क्यों पड़ा? प्रस्तुत सिद्धे शरण पन्वज्जामि, साह शरणं पव्वज्जामि, केवलि प्रश्न का सुस्पष्ट उत्तर यह कि बिहार मे पण्णत्तं धम्म शरणं पवज्जामि । चूकि एक धर्म, एक प्रहम्नों का बहुत बिहार (प्राममन-गमन) हुमा, प्रतएव दर्शन, एक संस्कृति, एक समाज, एक साहित्य अपने पड़ोसी अपने प्रागध्य देवतामो की पुनीत स्मृति लिए कृतज्ञ भक्त. धर्म, दर्शन, सस्कृति, समान प्रौर साहित्य से प्रभावित हुए जनो ने प्रपन प्रदेश का नाम बिहार रख लिया। प्ररहन्तो बिना रह ही नही सकता है, प्रतएव तीनो भारतीय भारतीय के निगस के लिए यहा अनेक बिहार (प्रावास) बने, संस्कृनिया वैदिक, जैन और बौद्ध परम्पर प्रभावित हई। इसलिए इस प्रदेश की सजा बिहार हो गई। यह बात विशेषतया महावीर पोर बुद्ध के व्यक्तित्व और कृतित्व में, प्रतीव स्वस्थ हृदय और सतुलित मस्तिष्क में इतिहास उनकी जीवन मानना मे अनेक समानताओं को दृष्टि-पथ और पूराण के परिप्रेक्ष्य में भाज भी निस्सकोच कही जा मे रखकर कुछ ऐतिहासिक विद्वान दोनो को पृथक नही सकती है। अपृथक भी समझने लगे थे, पर कालान्तर मे उनकी जिन दो भगवन्तो-प्रहन्तों की दिव्य और भव्य स्मृति धारणा निर्मल सिद्ध हुई।। बिहार अपने अन्तर में प्राज भी सजाए है, उनके नाम जैन और बौद्ध तथा वैदिक संस्कृति मे महन्त भगवान महावीर और पहात्मा गौतम बुद्ध है । इन दोनो शब्द को काफी चर्चा हुई है। जैन जनो का णमोकारमहतो का बिहार से काफी घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। चूकि मन्त्र ही णमो परहस्ताणं' (अरहलो को नमस्कार हो) भगवान पाश्वनाथ की परम्परा मे मह स्मा गौतम बुद्ध भी से प्रारम्भ होता है और बौद्धों के धम्मपद ग्रन्थ मे दालप्रलंयम वर्ष तक जैन श्रमण साधु रहे, अतएव यह स्वाभा- ब्राह्मण वग्ग की भाति परहन्त वग्ग भी है। तीर्थकर निक था कि उनके प्राचार-विचार, धर्म देशना पर जैन महन्त जिनेन्द्र के सदश गौतम बुद्ध को भी प्रमर-कोप और सस्कृति की भी क्षीण छाया पड़ी, अनेक जैन पारिभाषिक पञ्चतन्त्र संस्कृत ग्रथा मे 'जिन' जितेन्द्रिय, सर्वज्ञ, शास्ता शब्दो का प्रयोग भी बौद्ध वाङ्मय में हुमा, उदाहरण के कहा गया पर इतने पर भी प्रर्हन्त विषयक जैन और बौद्ध लिए परहन्त, प्रास्रव, गन्धकुटी, यम-नियम, सम्यक् दृष्टिकोण मे उतना ही अन्तर बना रहा, जितना अन्तर विनिकित्मा, ग्रद तादान प्रादि पर्याप्त होगे। महावीर और गौतम बुद्ध में रहा । "बद्ध शरण गच्छामि, घम्म शरण गच्छामि, संघ शरण प्ररहन्त :जंन दृष्टि गच्छामि" पर णमोकार मन्त्र के मागलिक पाठ की प्रस्तुत सर्वज्ञो जितरागादिदोषवस्त्रलोक्यपूजितः । क्तियोंकी क्षीण छाया पड़ी-भरहन्ते शरण पध्वजामि, यथास्थितार्थवादी च देवोऽहत्परमेश्वरः।। पष्ट
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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