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________________ बिहार के बिहारी: प्रतिहत परहंत विचार के इस बिन्दु से जैन प्रहन्त परमेश्वर सर्वज्ञ, में जय-ध्वनि होमी है, सुगन्धित जल की वृष्टि होती है, वीतराग लोक्यपूजित यथा स्थितार्थबादी होते है । दूसरे पवन कुमार देवभूमि को निकण्टक करते है सभी प्राणी शब्दों मे, जैन ग्रहन्त वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी मुदित होते है । पहनन के प्राग धर्म चक्र चलता है और होते है। गणम्यानो को दष्टि से साधु-उपाध्याय-प्राचार्य छत्र-चबर-हाजा-पण कलश जमे पंण पाठ मगल द्रव्य से आगे बढकर तेरहवें गुणस्थान में पहुंच कर जीवनमुक्त साथ-साथ रहते हैं। सदृश प्रहन्त होते है । वे समवशरण या धर्मसभा में प्रशोक वृक्ष, रत्नमप सिंहासन, तीन छत्र, भामण्डल, यामीन होकर पुरुष और स्त्रो, पशु पोर पक्षी, राजा पोर निरक्षरी दिध ध्वनि, पुष वष्टि, ६४ चवर चालन, रक, देव और राक्षस सभी को ममान रूप से दिव्य देशना दुन्दुभि वाद्यनाद, प्रतिहायं महित प्रहात होते है। वे देते है। वे व्यक्तियो पोर पदार्थो को समस्त अवस्थाये अनन्त दर्शन ज्ञान-सुग्व-तीथं सम्पन्न होते है। वे जन्मसे ही सुस्पष्टतया देख ते पोर लेखते है जैसे हम हाथ पर ___ जरा, तृषा, क्षचा, विस्मय, पति, खेद, गेग, शोबा, मद, रखे आंवले को या दोपहर में हाथ की रेखाम्रो को देखते मोह, भय, निन्द्रा, चिन्ता, स्वेद, राज, द्वेष, मरण रहित होते है । वे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, जैसे साथ के २८, उपाध्याय के २५ और प्राचार्य के पातिया कर्मों का नाश कर चकते है। वे जोवन्मुक्त निय. ३६ गुण होते है वसे ही प्रहन्त के ४६ गुण होते है -३४ मतः मुक्तिश्री के निकट भविष्य में प्रधिकागे हात है। अतिशय, ८ प्रातिहायं और ४ अनन्त चतुष्टय । ३४ प्रति क्षपकश्रेणी मारूतु जीवात्मा निश्चय से प्ररहन्त हात है। शयो मे से १० अतिशय जन्म के १. केवल ज्ञान के, भोर पहन्त एक से अधिक एक साथ हो सकते है पर तीर्थ कर १४ देवकृत अतिशय है। अतिशय का अर्थ प्राज की नही, इसलिए उनके पांच कल्याणक होना भी अनिवार्य भाषा में 'असाधारणता' करना उचित होगा। नहीं है । जो सोलह कारण भावनामों का चितवन करते प्रहन्त शरीर से सुन्दर-सुगन्धित होते है । वे स्वेद है, तीर्थकर प्रकृति का बन्य करते है वे हो तीर्थकर हाते मल मूत्र रहित होते है। वे हित-मित-प्रियभाषी, प्रतुलित हैं। तीर्थकर या महन्त भी निजान निकाम, निरीह भाव वली, श्वेतरुधिर, १००८ लक्षण समचतुस्स सस्थान वच से धर्मचक्र का प्रवर्तन करते है । संस्कृत के एक सुकवि क वृषभनाराच सहनन वाले होते है । जिस स्थान मे अहंन्त शब्दो मे उनकी वाणी का साराश यह है होते है वहा से मौ योजन तक सुकाल होता है । वे प्राकाश पासवोभवहेतुस्यात् सवरा मोक्षकारणम् । मे गमन करते है। उनका मुख चारों ओर दिखता है। इतीय माहंती दृष्टि रम्य दस्याः अदया का प्रभाव और उपसर्ग (उपद्रव) का भी प्रभाव होता प्रपचनम् ।। है। वे सर्वसाधारण सदृश ग्रास वाला पाहार नही लेते है। अर्थात् प्रास्रव ससार का और सवर मोक्ष का कारण वे ममस्त विद्यापो के स्वामी होते है, उनके न नख-केश बढ़ते है। इतनी हो प्रहन्त की दृष्टि है। शेष सभी इमो का है और न नेत्रों को पलके झाकती है तथा न शरीर की विस्तार है। महन्त, अरहन्त, प्रारहन्त, अरुहन्त, पाहा शब्द छाया पड़ती है । वे एक ही चिर-युवा होते है जो जन्म का अर्थ उनकी वास्तविक व्युत्पत्ति की दृष्टि से समक्ष जरा मरण से सुदूर होते है। ही है । प्ररहन शब्द के भिन्न-भिन्न भाषाम्रो मे निम्न. प्रहन्त की भापा पद्धमागधी होती है। उनके प्रभाव लिखित रूप है, जिसका भाषा विज्ञान साक्षी है.से सभी जीव मित्र सदश रहते है । दशो दिशाओ के साथ भाषा रूप भाषा रूप प्राकाश निर्मल होता है। छहो ऋतुप्रो के फल-फल-धान्य सस्कृत प्रहन तमिल भवह एक समय फलते है। एक योजन तक पृथ्वी दपंण की तरह प्राकृत प्ररिहन्त प्राभ्रश मलहतु, भलिहो स्वच्छ होती है। जब पहन्त विहार करते है तब उनके पालि मरिहत कावड़ परहन्त, प्रान्त चरणो के नीचे देवता सीध स्वर्णकमल रवते है । प्राकाश मागधी अलहन, प्रलिहा
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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