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________________ ६८, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त अमरकोष में जहां "सर्वज्ञो वीतरागो अर्हन् केवली या अरण्य, नीचा स्थान हो या ऊँचा, वह भूमि रमणीक तीर्थ कृज्जिनः" कहा गया वहा नाममाला मे सर्वज्ञो है। उन रमणीय अरण्यो मे, जहाँ साधारण लोग रमण वीतरागोऽर्हन केवली धर्मच कमत" कहा गया। भर्तहरि ने नही करते है. वहाँ कामनापों के पीछे नही भटकने वाले शृङ्गारशतक मे "स्याद्वादिक: पाहत:" कहा तो ऋग्वेद मे वीतराग जन रमण करेगे। ऐसी विविध बातें धम्मपद "पहन विभषि सायकानि" कहा गया। मे महन्त के विषय कही गई हैं। प्रहन्त के विषय मे पहात : बौख वृष्टि उल्लेखनीय है कि जिसने अपने को जीत लिया। वह युद्ध मे जिसका मार्ग समाप्त हो चुका है, जो शोकरहित जीतने वालो से बढ़कर है और धर्म का एक पदश्रेष्ठ है और rin a ini का सके जिसे सुनकर शान्ति प्राप्त हो जाती है। "रवीणसव पर हीन यान लोग हन" अर्थात् प्रहन्त प्रास्रव से क्षीण होते है। "नस्थि उद्योग करते है, वे गह में रमण नही करते है। जिस जागरतो भयं" अर्थात जागने वाले को भय नही है तो तपति तेजमा" बुद्ध तेज में प्रकाशिन है। प्रकार हंस जलाशय का परित्याग कर चले जाते है उसी तथागत प्रहंत है, सम्यक सम्बद्ध है। वे दो अन्त प्रकार वे (पहन्त) लोग भी गहों को त्याग देते है। जो अष्टांगिक मध्यम मार्ग, चार पायं सत्य के सन्देशवाहक वस्तूमों का संचय नही करते है, जिन्हें शन्यतास्वरूप है। महन्त से प्राशय मक्त पुरुष का है। अहंन्त शाम्ता निमित्तरहित मोक्ष दिखाई पड़ता है, उनकी गति उसी भिक्षो के लिए उपदेश देते है - भिक्षुग्रो, बहुजन प्रकार कठिनाई से जानने योग्य है जिस प्रकार कठिनाई के हित के लिए, बहजन के सुख के लिए, से जानने जानने योग्य है जिग प्रकार प्राकाश में पक्षियो लोक पर दया करने के लिए, देवतायो और की गति कठिनाई से जानने योग्य होती है। जिनके चित्त के मनुष्यो के प्रयोजन के लिए, सुख के लिए विचरण करो। मैल क्षीण हो गये है, जो प्राहार मे अनासक्त है, जिसे प्रारम्भ, मध्य और अन्त मभी अवस्थाप्रो में कल्याणकारक शन्यतास्वरूप निमित्तरहित मोक्ष दिखाई देता है, उसकी धर्म का उसके शब्दो और भावों सहित उपदेश करके गति उसी प्रकार कठिनाई से जानने योग्य है जिस प्रकार सर्वाश मे परिशुद्ध परिपूर्ण ब्रह्मचर्य का प्रकाश करो। प्राकाश में पक्षियों की गति कठिनाई से जानने योग्य है। ग्रहन्त धर्म को मुग्राख्यान करते है। दुग्न के क्षय के हेतु जिम प्रकार सारथी के द्वारा घोडो का दमन किया जाता ब्रह्मचर्य पालने को कहते है। उद्योगी ही, पालमी न बनो, है उसी प्रकार जिमकी इन्द्रिया शात हो गई है. ऐसे अभि- सुचरित धर्म का प्राचरण करो, यह प्रेरणा देते है। धर्ममानरहित प्रास्रवविहीन मनुष्य (अर्हन्त) की देवता भी चारी पुरुष इस लोक वपरलोक में मुख में सोता है। प्रवजित चाह करते हैं। होने पर नाम-गोत्र से विलग सभी श्रमण होते है । जन्म से पढ़वी समो न विरुज्झति इन्द्र खीलूपमोत दिसुब्बतो। न कोई ब्राह्मण होता है न अब्राह्मण, कर्म से ही कोई ब्राह्मण रहदो अपेत कददमो संसारी न भवति तादिनो॥ या अब्राह्मण होता है। बुद्ध अरहंत शाश्वतवाद-उच्छेद जो पृथ्वी के समान क्षब्ध नहीं होता, जो इन्द्र के बाद दोनों से परे है। उनके उपदेश का सार यह हैसमान व्रत मे दृढ़ है, जो जलाशय के समान कीचड से सब्ब पापस्स अकरणं कुसलस्स उपसंपदा । शम्य है, उसके लिए संसार नही होता है। जो मनुष्य सचिन्त परियोदपनं एतं बद्धानुसासनं ॥ यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति से विमक्त और उपशान हो गया अर्थात् समस्त पापो का त्याग करना, समस्त पुण्य कमों है, ऐसे मनुय्य का मन शान्त हो जाता है, उगी वाणी का संचय करना, अपने चित्त को निर्मल, पवित्र रखना, और कर्म शान्त होते है । जो मनुष्य अधश्रद्धा से रहित यही बुद्ध का अनुशासन है। बुद्ध-परहन्त पाठ अनुहै, जो प्रकृत निर्वाण को जानने वाला है, जो अवकाश हल चघनीय नियमो स्वीकृति पर भिक्षुणी संघ की स्थापना रहित है, जिसने तृष्णा का परित्याग कर दिया, वही उत्तम करते है । वे मन-वचन-काय के दुश्चरित को पाप पाकु. पुरुष है। जहां प्रहन्त विवरण करते है, वह चाहे ग्राम हा शन धर्म किया कहते है। वे स्वधर्म मे पर धर्मानुयाय!
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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