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________________ अनुपम प्रादर्श जीवन डा. प्रेमचंद रांवका स्व. मा शान्तिप्रसाद जी जैन का स्मरण होते ही के थे, जिमका परिणाम प्राज भारतीय ज्ञानपीठ है। एक अनुपम मादशं जीवन्त प्रतिमा हमारे सामने साकार हो वस्तुनः धर्म और मस्कृति के क्षेत्र मे इस संस्था के माध्यम उठती है। उनका सम्पूर्ण जीवन भारतीय साहित्य, संस्कृति, मे माहू दम्पति ने जो कुछ किया वह सब स्वर्णाक्षरों में उद्योग एवं ज्ञान-विज्ञान को समर्पित जीवन था। उनकी उल्लेखनीय है। मद्वितीय प्रतिभा लक्ष्मी एवं सरस्वती के सम्यक् उपयोग स्व० माहूजी के गहन अध्ययन का पता ममें प्रत्यक्ष एवं सेवा मे संलग्न थी। भारतीय जन-जीवन के प्रमुख में उस समय देखने को मिला, जब मन् १९७२ में भारत क्षेत्र मे धर्म. समाज, साहित्य, उद्योग और यत्किचित राज- वर्षीय दिगम्बर जैन परिषद का अधिवेशन कोटा (राज) नीति में भी उनका अपना प्रभाव एवं योगदान था । वे मे प्रायोजित किया गया था। उन्ही दिनों हमे उनके साथ वस्तुन. एक प्रेरणादायी दीपस्तम्भ थे। साहित्य एव चम्बल नदी पार केशोराव पाटन के दि. जैन मन्दिर सस्कृति के वे सच्चे उपासको मे से थे। भी ले जाया गया। मन्दिर एव मूर्तियां बड़ी प्राचीन इसमे कोई प्रतिशयोक्ति नहीं कि स्व. साहू सा० पोर थी। हमे मन्दिर मे भ-गर्म में सुरक्षित प्रतिमात्री के भी उनकी सहधर्मचारिणी स्व० रमा जी दोनों के कधो पर दर्शन कराए गए। मन्दिर मे विगजमान सभी मूर्तिया लक्ष्मी एवं सरस्वती को जोड़ने वाला विज्ञान सेतु प्राधा. प्राचीन है। श्री मनिसवत नाथ की मति, जो कृष्ण fत था। भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना, उसके माध्यम पाषाण की थी, प्रत्यधिक प्राचीन के स. १३वी शताब्ची के से भारतीय साहित्य का प्रकाशन पोर इससे भी महनीय भासपास महमूद गजनवी के प्राक्रमण चिन्ह उस पर पायं जो भारत सरकार भी नहीं कर सकी, अक्ति थे। साह जी उस प्रतिमा की पोर काफी समय प्रत्येक वर्ष भारत की विभिन्न भाषामों के उच्चकोटि निहारते रहे। पास एक अन्य मूर्ति की जिसको केवल साहूजी के सनन पर एक लाख का पुरस्कार उनकी चिरस्थायी ही पहचान सके। उन्होने बताया कि वह मल्लिनाथ की यशोगाथा है । लक्ष्मी एवं सरस्वती का ऐसा सुन्दर सम प्रतिमा है। उन प्राचीन प्रतिमानो को देखकर उन्होन जो वाय बिरला ही दृष्टिगोचर होता है। चर्चा की, उससे उनकी गहन अध्ययन, रूचि एव मननस्व. माहजी के जीवन की महत्वपूर्ण विशेषता शालता का पता चला उनकी धर्मपत्नी रमा जी की धर्मनिष्ठा है। रमा जी की भारतीय ज्ञानपीठ के रूप मे साहू-दम्पत्ति का यश उदात्त धर्म भाव भावना ने साह जी को साहित्य एवं सस्कृति चिरस्थायी रहेगा। उनकी स्मृति को यह सस्थान सदा के प्रति प्रतिक रेवानिष्ठ बनाया। लक्ष्मी का मोह और ताजा एवं शाश्वत बनाये रखेखा। उस दम्पत्ति का वह मह साहू जी को प्रभीष्ट नही था, अपितु धन पर विजय अनुपम जीवनादर्श समाज के धनी-मानी, सेठों, नेतामो, प्राप्त कर उसका धर्म, समाज, सेवा, संस्कृति । व साहित्य समाजसेवियो, उद्योग पतियो के लिए निश्चित ही अनुकर. वे सरक्षण, सम्पोषण एवं संवर्द्धन में सम्यक उपयोग ही णीय है । ऐसे धर्मनिष्ठ साहित्य, संस्कृति एव राष्ट्रसेवी उनके पर्योपार्जन का अभीष्ट था। वे उदार विचारों दिवगत साह-दम्पति को शतशत वन्दन ! 000
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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