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________________ अपवालों की उत्पत्ति को मत्य के बाद जिनसेनाचार्य के गुरु भाई विनयसेन के सुनाई काल्पनिक बातों से भरा हमा है, प्रतएव प्रामाणिक दीक्षित शिष्य कुमारसेन द्वारा सं०७५३ मे नन्दितट ग्राम प्रतीत नही होता। मेकाष्ठासघ की उत्पत्ति हुई, जैसा कि उसकी निम्न प्रयोक नगरी को महालक्ष्मी व्रत कथा मे गंगा-यमुना गाथानों में स्पष्ट है : नदियो के मध्य हरिद्वार मे १४ कोश पश्चिम की मोर तेण पुणो बिय बिच्चु णाऊण भुणिस्य बिणयसेणरस । बतलाया गया है और अग्रसेन के साथ उसका सम्बन्ध सिद्धते घोसिता सय गय सन्न लोयस्स ॥३३॥ जोडा गया है, जो काल्पनिक है । डा. सत्यकेतु की दृष्टि मासीकुमारसेणो एबियडे बिणयसेण दिव्यखयो। मे भी वह काल्पनिक रहा है। इतिहास की दृष्टि से वह चचोन समो रूद्दी क्ट्ठ सघ परुवेदि ॥३६॥ मनगढंत है। दूसरे, अग्रसेन राजा की रानियों, पूत्रों और सो सवणसंघ बज्जो कुमार मेणो दुग्नमय भिच्छत्ती। कन्यानों के नाम भी पूरे नहीं गिनाने जा सके है। उनका सत्त सये तेवणे विचकमरायस्म मरणपतस्स । भी समर्थन अन्यत्र से नही होता। माढे सत्रह गोत्रों की पदिय हे बरनामे कठो सपो मुणयन्वो ॥३८॥ वल्पना काल्पनिक ही है, प्राधे गोत्र का क्या प्राधार --दर्शनसार है ? पुगणो में इनका साक्ष्य मिलना चाहिये। डा. सत्तवेतु ने १० १९८ पर लिखा है कि 'परम्परा दर्शनसार की गाथा मे, वि० सं०७५३ में काष्ठासंघ अनुश्रति के अनुसार गनियो की संख्या साढ़ सत्रह या की उत्पत्ति बतलाई गई है। यह ममय ऐतिहामिक दृष्टि मे अठारह लिखकर भी महालक्ष्मीव्रत कथा का लेखक उनके ठीक नही मालम होता, क्योकि प्राचार्य गुण भद्र की मृत्यु नामो की गिनती पूरी न कर सका। इस ग्रन्थ मे राजा के उपरान्त काष्ठासंघ की उत्पत्ति हुई। इसमे ७५३ का अन की रानियो व कन्याप्रो के जो नाम दिये गये है वे विक्रम संवत ठीक प्रतीत नही होता, क्योकि बीरसेन के कहा तक सत्य है यह कहना कठिन है। इससे स्पष्ट है शिष्य जिनसेन के सधर्मी विनय मेन थे, और इन्ही विनय कि डाक्टर साहब भी उससे शकित है। सेन के अनुरोध से जिनसेन के पाश्र्वाम्यदय काव्य की रचना की थी। इन कुमारसेन ने गुणभद्र की मृत्यु के बाद कथा के १३७-१३८ पद्यो में बतलाया गया है कि प्रमकाष्ठासघ की स्थापना की, जिससे उक्त ७५३ का से नने साढ़े सत्रह यज्ञा से मधुसूदन को सतुष्ट किया। एक सवत् १५० वर्ष के लगभग पीछे पड़ जाता है। इससे बार यज्ञ के बीच मे घोड़े का मास बोल उठा। उसने वह स्थापना काल सदोष है। काष्ठासष की उत्पत्ति कहा कि राजन् ! मांस और मद्य द्वारा स्वय को जय मत विक्रम की १०वी शताब्दी के लगभग ठहरती है। यदि करो। हे दयानिधे ! इन दोनो से रहित जीव कभी पाप उसे विक्रम संवत् न मानकर शक सबत् माना जाय तो से लिप्त नहीं होता । इसमें विचारणीय है कि क्या घोडे संभवत: उसका सामंजस्य हो सकेगा। या किसी जीव का मास बोल सकता है; उसमे उसका प्रात्मा निकल जाने या प्राण रहित हो जाने के बाद महालक्ष्मी व्रत कथा बोलने की शक्ति कहा से आ गई; क्या निर्जीव व्यक्ति का महालक्ष्मी व्रत कथा संस्कृत भाषा की एक अर्वाचीन इश प्रकार की उद्घोषणा कर सकता है। यह कथन निरा खंडित कृति है जिसका कर्ता प्रज्ञात है मौर जिसे भविष्य काल्पनिक और मनगढ़त जान पड़ता है। क्या कोई वंज्ञा निक इसे कसौटी पर कसकर प्रमाणित कर सकता है? पुराण का अंश बतलाया गया है। परन्तु वह उसमें उपलब्ध नही होती। प्रन्थ व्याकरण सम्बन्धी प्रशुद्धियों से युक्त कथा में यह भी लिखा है कि धनंजय का पुत्र श्रीनाथ है, जिसका सकेत डा० सत्यकेतु विद्यालकार ने भी अपने हमा और श्रीनाथ का पुत्र दिवाकर हुमा। दिवाकर ने अग्रवालों के प्राचीन इतिहास में किया है। रचना साधारण जनमत का पालन किया। परन्तु प्रयकर्ता ने इसे स्पष्ट है। भाषा में प्रौढ़ता के दर्शन नहीं होते। कथानक सुनी (शेष प्रावरण पृ०३ पर)
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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