________________
३०, वर्ष ११कि०१
भनेकास
एण्डिल और मंगल नाम के गोत्रो के नामोल्लेख विविध के एकदेश धारक थे। इनका समय ६८३ वर्ष की श्रतअन्धादि में मेरे प्रवलोकन में पाये है। उन सब मे गर्ग घरों की काल गणना मे पाता है। प्राकृत पट्टावली के गोत्र वालो के उल्लेख अधिक पाये जाते है । सम्भवतः अनुसार इनका समय वीर नि० सं०५६५ है। 'लोहज्ज' उसो तरह वैष्णव अग्रवालों में भी वैसे ही पाये जाते होगे। शब्द प्राकृत भाषा का है जिसका अर्थ लोहार्य या लोहाशेष गोत्रों के सम्बन्ध में मुझे कुछ जानकारी प्राप्त नहीं हुई। चार्य होता है। बहुत सम्भव है कि इन लोहाचार्य से अग्रजनइसी तरह परवार, खण्डेलवाल, गोलापूर्व, हुंबड, गोलालारे, पद के निवासियों को प्रबोध मिला हो और उनके उपदेश पोसवाल, बधे रवाल, प्रादि उपजातियों के गोत्रादि भिन्न- से उन्होने जैनधर्म धारण किया हो और प्राग्रेय या अग्र भिन्न पाये जाते है । सम्भव है तुलना करने पर कुछ उप- जनपद के निधासी होने से अग्रवाल कहलाने लगे हो। जातियों के गोत्रादिको में कही कुछ गमानता भी मिल काष्ठामघ की उत्पत्ति तो बाद में हुई है, फिर भी जाय । वस्तुत उनके गात्र भिन्न हो देवा में प्राते है। काष्ठा संघ के साथ लोहाचार्यान्वय का उल्लेख है। परन्तु लोहाचार्य
इसका कोई प्राचीन उल्लेख मेरे देखने मे नही पाया है। ___ लोहाचाय काम के दा प्राचार्यों का उल्लेख मिलता हां, १५वी-१७वी शताब्दी की लिपि प्रशस्तियो आदि मे है। उनमे प्रथम लोहाचार्य तो भगवान महावीर के पचम लोहाचार्यान्वय का उल्लेख अवश्य देखने मे प्राया है।' गणघर थे। पटखण्डागम की धवला टीका और कपाय
एक लोहाचार्य का उल्लेख प० बुलाकीचन्द्र ने अपने पाहड़ की जयधवला टीका मे लौहिज्ज नाम से उनका
स० १७३७ मे रचित बचन-कोश में किया है और बताया उल्लेख मिलता है यथा तेण गोदर्मण दुबिह मबिसुदणाण
है कि काष्ठामघ की उत्पत्ति उमास्वामी के पट्टाधिकारी लोहजस्स सचाग्दि (धवला पु० १, पृ०६५)। इनका नाम
लोहाचार्य द्वारा अगरोहा नगर में हुई। इसका कोई प्राचीन सुधर्म स्वामी धा पौर प्रपरनाम लोहाचार्य । मनि पद्म
प्रामाणिक उल्लेख अभी तक प्राप्त नही हुमा । अतएव यह नन्दी ने जम्बद्वीप पण्णती मे सुधर्म गणधर का नाम लोहा
प्रामाणिक नही हो सकता । उमास्वामी के पट्टाचार्य किसी चार्य बतलाया है-तेण बि लोहज्जस्य य लौरज्जेण य सधम्म
लोहाचार्य का कोई उल्लेख अभी तक प्राप्त नही हमा। । (जम्बद्वीप पणती १-१०)। इनका निवाण इ० काष्ठासंघ की उत्पत्ति पूर्व ५७३ मे हुप्रा था।
काष्ठासध की उत्पत्ति का उल्लेख प्राचार्य देवसेन के __दूसरे लोहाचार्य प्राचाराग के धारण और शेष अगो दर्शनसार मे मिलता है । उसमे लिग्वा है कि गुणभद्राचार्य सुभद्रो तो यशोभद्रो यशोबाहुनेतर ।
मायरान्वये पुष्करगच्छे लोहाचार्यान्वये प्रतिष्ठाचार्य लोहाचार्यस्तुरीयो भदाचारागधुतां प्रतत. ।।
श्री अनन्तकीर्तिदेवा: तस्य पट्टनगणागणे भट्टारक - हरिवशपुराण १.६५ कल्प श्री क्षेमकीर्ति देवः तत्पट्टे श्री हेमकीर्ति देवाः लोहिज्जो, लोहाइरिए सर्ग गदे पायावस्स बीच्छेदो तत्शिष्य श्री धर्मचन्द्रदेवा: तस्य धर्मोपदेशामृतेन हृदिजादो।
---जयषवला, पु. १, पृ० ८६ स्थित घनोबल्ली खिच्चभामेन रोहितासनगरे वास्तव्य २. भट्टारकीय मन्दिर प्रजमेर शास्त्र भण्डार की समय- श्री कालपीनगरस्थित अग्रोत कान्वय मीतल गोत्रीय
सार टीका (प्रात्मख्याति) की लिपि प्रशस्ति में जो पूर्वपुरुप ...। १४६३ सोमवार की लिखी हुई है, काष्ठा सघ के सवत् १६५८ फाल्गुन सुदी ८ शनिवासरे श्री काष्ठासाथ लोहाचार्यान्वय का उल्लेख है, यथा-'स्वस्ति सघे माथुरागच्छे श्री लोहाचार्यान्वये श्री गुणभद्र श्री संवत १४६३ वर्ष त्रयोदश्या सोमवासरे प्रथेय त्री
पट्टे श्री गुणकीति तत्पट्टे श्री कुमारसेनास्तत: श्री कालपीनगरे समस्त राजाबली समलकृत विनजितारि- विशालकीतिः तच्छिष्य जसोघर नित्य प्रणमिति । बली प्रचंड महाराजाधिराज सुरबाण महमूदं साहि यह लेख तार की गली मागरा मन्दिर की मूर्ति विजयराज्य प्रवर्तमाने प्रस्मिन राज्ये श्री काष्ठासंघ