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________________ अनेकान्त १४,३१,०१ काव्य-सृजन का उद्देश्य एवं प्रारम्भ स्वयम्भू के पउमचरिउ के सृजन के मूल में क्या कारण थे स्पष्ट नहीं है। यद्यपि पउमचरिउ की सन्धियों की पुष्पिकाओं से इतना ही विदित होता है कि किसी धनंजय नाम के व्यक्ति की प्रार्थना पर कवि ने प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की थी— इय रामचरिए घर्णजयासिय सयंभुएव कए । पउ (१-१६) ' लेकिन इतना ही कारण न रहा होगा । अपनी काव्य-रचना का ध्येय श्रात्माभिस्वयम्भू व्यक्ति मानते हैं। रामायण काव्य के द्वारा वह अपने प्रापको व्यक्त करना चाहते थे- 'पुणु प्रप्पाणउ पायडमि रामायण कार्ये (१३० १-१-१६) उनका लौकिक लक्ष्य या - यश की प्राप्ति । इसलिए उन्होंने अपने यश को चिरस्थायी रखने के लिए रामकथा का ही माध्यम चुना, क्योकि उनके पूर्व कम से कम दो जैन महाकवि विमलमूर और रविषेण राम साहित्य का सृजनकर प्रसिद्ध हो चुके थे । सम्भवतः उनकी कृतियो का आदर भी जन माधारण मे स्वयम्भू के समय था, जिससे प्रेरित और प्रभावित होकर प्रथ-प्रणयन के समय उनको कहना पड़ा है निम्मल-पुष्ण पवित्त कह किल माउप्प जेण समाणिजन्तरण चिर किसि विढप्य ॥ - ( १३० १, २, १२) जैन साहित्य में रामकथा का प्रणयन लोक प्रचलित कुछ शंकाओ के समाधान के रूप मे भी हुआ है। हो सकता है, इसके प्रचार-प्रसार की भावना भी स्वयम्भू के मन मे रही हो । महाकवि तुलसीदास का लक्ष्य रामचरित मानस के प्रणयन में इससे भिन्न था। पत्नी की प्रवहेलना व प्रेरणा से उनमें रामभक्ति उपजी स्वाभाविक है कि वे जो भी लिखते या उन्होने लिखा है, राम के विषय मे ही। दूसरी बात, वे अपने माराष्यका चरित बखानकर अपनी वाणी को पवित्र करना चाहते थे। उन्होंने परम्परा से प्राप्त रामकथा का भी अध्ययन किया था 'जो प्राकृत कवि परम सयाने, भाषा जिन हरि चरित बखाने । ' । इनके अतिरिक्त तुलसीदास अपने युग से कम प्रभावित नहीं थे तत्कालीन दार्शनिक व सामाजिक स्थिति को नया मोड देने के लिए एक इतने ऊंचे भादर्श को भावश्यकता थी जो केवल रामचरित के वर्णन में ही सम्भव थी मत सुननीदास ने हिन्दू संस्कृति को मुगलशासन । के प्रभाव से सुरक्षित रखने के लिए रामचरितमानस का प्रणयन किया और हर सम्भव प्रयत्न उन्होंने इस ग्रन्थ के द्वारा करना चाहा, जिससे वे परिवर्तन की दिशा को एक नया मोड़ दे सकें । १. जइ रामहो तिहुभ्रणु उवरे माइ । तो रावण कहि तिय लेवि जाइ । इत्यादि यही १.१० २. रामचरितमानस, बालकाण्ड | स्वयम्भू और तुलसीदास ने अपने प्रस्तुत ग्रन्थो का प्रारम्भ प्रायः एक-सा किया है। सर्वप्रथम देवताओं और अपने आराध्य की वन्दना कर आत्मलघुता दोनों ने प्रकट की है। यथा तिम्रण लग्गाण खम्भु गुरु परमेट्ठि णवेष्पिणु । पुणु प्रारम्भिय रामकह प्रारिसु जोणेपि । प० १-१ बंदऊ गुरुपद पदुम परागा । सुरुचि सुबास सरस अनुरागा । बदऊ नाम राम रघुबर को । हेतु कृसानु भानु हिमकर को ॥ यथा - बुहपण सयम्भू पूइँ विष्णवई । मई सरिस प्रष्णु णाहि कुरुई हऊँ कि पिण जाम मुक्ख मुणें । यि वद्धि पयासमिनो विज ।। (१३० १ ३.१,९) कवि न होहुं नहिं चतुर प्रवीनू । सकल कला सब विद्या हीनू ॥ इत्यादि । इसके अतिरिक्त बल निन्दा, सज्जन प्रशंसा प्रादि प्राचीन परम्परा का निर्वाह दोनों ने किया है। स्वयम्भू ने रामकथा को अनेक गुणों से युवक माना है तथा सरिता के रूप मे उसका चित्रण किया है। रामकथा अक्षरविन्यास के जनसमूह से मनोहर, सुन्दर लकार तथा छन्दरूपी मरस्यों से परिपूर्ण घोर सम्बे प्रवाहरूप से प्रति है । यह संस्कृत और प्राकृतरूपी पुलिनों से प्रलंकृत देशीभाषा रूपी दो कूलों से उज्ज्वल है 1 ३. दसरह तब कारण सब्बुद्धारणु वज्जयष्ण सम्मयभरि । जिणवरगुणकिसणु तीयसइस तं विसुणडु राहव चरि ॥ प० स ि४०
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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