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________________ मध्ययुग का एक प्रम्बातमिया नाटक जीव मजीव जिते जग में, तिनको गुन ज्ञायक मंतरजामी। अन्यत्र दुर्लभ ही है। बनारसीदास ने उस भारम-ब्रह्म की सो सिवरूप बस सिवथान, ताहि विलोकि नमै सिवगामी ।" प्रशंसा में लिखा हैनिर्गनिए संतों की भांति ही बनारसी ने यह स्वीकार "देख सखी यह ब्रह्म विराजित, याको इसा सब याही की सो है। किया कि जिनराज घट मन्दिर में विराजमान रहता है। एक मैं अनेक अनेक में एक, उसमें ज्ञानशक्ति विमल पारसी की भांति दमक उठती है, जिससे वह समूचे विश्व को देख पाता है। इस देख सकने दुंदु लिये दुविधामह दो हैं । प्रापु संभारि लख प्रपनो पद, की सामर्थ्य से अन्तर-राग और महामोह दोनों समाप्त हो मापु विसारिक मापुहि मो है। जाते हैं और मात्मा परम महारस रूप बन जाती है । ___ व्यापक रूप यहै घट अंतर, महारस वह है जिसमें एक भोर मन की चपलता नही रहती तो दूसरी पोर योग से भी उदासीनता मा जाती ग्यान मैं कौन प्रज्ञान मैं को है।" है, अर्थात प्रात्मा सहजयोगी का रूप धारण कर लेती है। बनारसीदास ने सकल ब्रह्म के भी गीत गाये । सकल 'सहजयोगी' का तात्पर्य है कि परम महारस के प्राप्त हो ब्रह्म वह है, जो केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भी, प्रायुकर्म जाने से योगी को योग को दुरूह साधना से स्वत: निर्वति के प्रवशिष्ट रहने से विश्व में शरीर सहित मौजूद रहता मिल जाती है। वह साधना के बिना स्वाभाविक ढंग से है, अर्थात उसके घातिया कर्मों का क्षय हो जाता है, ही योगी बना रहता है। बनारसीदास की सहजता में अत: उसको भात्या में ब्रह्मत्व तो जन्म ले ही लेता है, व्रजयानियों के सहजयानी सम्प्रदाय का 'सहज' नही है, या क सहजयाना सम्प्रदाय का 'सहज नहा ह। किन्तु प्राय के क्षीण होने तक उसे संसार में रुकना पड़ता इसमे प्रात्मा का स्वाभाविक रूप ही मुख्य है, अर्थात् है। केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपरान्त महन्त को यह ही बनारसीदास पहले महारस प्राप्त करते है, तब सहजता हाती रत ह। तब सहजता दशा होती है। उन्हें जीवन्मुक्त कहा जा सकता है। वे स्वाभाविक ढंग से प्रा ही जाती है। सहजयानी पहले। सशरीरी ब्रह्म है। प्राचार्य जोइन्दु ने उन्हे 'सकल ब्रह्म' सहजता प्राप्त करते है, फिर महारस को ओर अखि कोमजान की सज्ञा से अभिहित किया है। सूर और तुलसी ने ऐसे लगाते है। कुछ भी हो, बनारसीदास घट में शोभायमान ब्रह्म को सगुण कहा है, बनारसीदास ने तेईसवें तीर्थहर सहजयोगी चेतन की वन्दना करते है। पार्श्वनाथ को वन्दना करते हुए लिखा है कि उनकी भक्ति जैन प्राचार्यों ने 'परम महारस' में डूबी प्रात्मा को करने से समूचे डर भाग जाते हैं, अर्थात् भक्त निर्भय हो ब्रह्म कहा है। बनारसीदास ने भी उसे ब्रह्म कहा, उसके जाता है। भगवान् पाश्र्वप्रम का शरीर सजल-जलद की स्याद्वाद रूप का विवेचन किया। उन्होंने लिखा है कि मांति है। उनके सिर पर सप्तफणियों का मुकुट लगा है। वह एक भी है और अनेक भी, अर्थात् वह प्रात्मसत्ता में उन्होंने कमठ के प्रकार को दल डाला है। ऐसे जिनेन्द्र एकाप है और परसत्ता में अनेक रूप । वह ज्ञानी है और को बनारसीदास नमस्कार करते है। यह सच है कि प्रज्ञानी भी, अर्थात शुद्ध रूप में ज्ञानी और कर्मसगति मे जिनेन्द्र ने अपने भक्तो को कभी नरक में नही जाने दिया, प्रज्ञानी है। इसी भांति वह प्रमादी है और अप्रमादी उनके पापों को बादल बनकर हरण कर लिया। इतना ही भी-जब अपने रूप को भूल जाता है तो प्रमादी और नही, किन्तु उन्हे प्रगम्य प्रकार भव-समुद्र से पार कर जब अपने रूप को जागृत होकर स्मरण करता है तो दिया। वह भगवान् कामदेव को भस्म करने के लिए रुद्र अप्रमादी। अपेक्षाकृत दृष्टि से ही वस्तु का वास्तविक के समान हैं। भक्तजन सदेव उसकी जय-जय के गीत निरूपण हो सकता है, अन्यथा नहीं। इस दृष्टि को ही गाते है । स्यावाद कहते हैं। यह सिद्धान्त प्रात्मा पर भी घटित जिनेन्द्र (सकल ब्रह्म) की भक्ति की सामर्थ्य का होता है। मात्मा का ऐसा निष्पक्ष और सत्य विवेचन बखान करते हुए बनारसीदास ने एक स्थान पर लिखा है
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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