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________________ १., बर्ष ३१ कि.. अनेकान्त कि जिनेड की भक्ति कभी तो सुबुद्धि रूप होकर कुमति मुनिराज विश्व की शोभा बढ़ाते है । बनारसीदास ने उन्हें का हरण करती है, कभी निर्मल ज्योति बनकर हृदय के पुनः पुनः नमन किया। अन्धकार को दूर भगाती है, कभी करुणा होकर कठोर भक्त प्राराध्य की वाणी में भी श्रवा करता है। हृदयों को भी दयालु बना देती है, कभी स्वयं प्रभु की उसकी महिमा के गीत गाता है। जिनवाणी जिनेन्द्र के लालसा रूप होकर अन्य नेत्रों को भी तद्रूप कर देती है, हृदयरूपी तालाब से निकलती है और श्रुत-सिन्धु में समा कभी भारती का रूप धारण कर भगवान के सम्मुख पाती जाती है, अर्थात् वह एक सरिता के समान है। यह वाणी है भोर मधुर भावों को अभिव्यक्त करती है। कहने का सत्यरूपा है । सत्य अनन्त नयात्मक है। अनेक अपेक्षाकृत तात्पर्य है कि भक्ति भक्त को प्रभु की तद्रूपता का दृष्टियों से यह विविध रूप है। उसका कोई एक लक्षण मानन्द देती है। कवि ने लिखा है नहीं, कोई एक रूप नहीं। उसे समझने के लिए वैसी कबहूं सुमति ह कुमति को बिनास करें, सामर्थ्य पावश्यक है, अर्थात् सम्यग्दष्टि ही उसे समझ कबहुं विमल ज्योति प्रतर जगति है। सकता है, अन्य नही । बनारसीदास का कथन है कि वह कबहूं दया ह चित्त करत दयाल रूप, जिनवाणी सदा जयवंत होकबहूं सुलालसा ह लोचन लगति है। "तास हृद-द्रह सौ निकसी, कबहूं प्रारती ह्र के प्रभु सन्मुख प्राव, सरिता-सम हूं श्रुत-सिन्धु समानी। कबहूं सुभारती ह बाहरि बगति है। थाते अनन्त नयातम लच्छन, घर दसा जैसी तब कर रीति सी ऐसी, मत्य स्वरूप सिधत बखानी । हिरदै हमारे भगवत की भगति है। बुद्ध लख न लग्वं दुरबुद्ध, जिनेन्द्र की मूर्ति अथवा विम्ब को देखकर जिनेन्द्र की सदा जगमाहि जगे जिनवानी ॥" याव पाती है, उनके गुणों को प्राप्त करने की चाहना कबि बनारमीदास ने नवधा भक्ति का निरूपण किया उत्पन्न होती है। जिनेन्द्र मे कुछ ऐसा सौन्दर्य है, जिसके है। उन्होने लिखा है, "श्रवन कीरतन चितवन सेवन समक्ष इन्द्र का वैभव भी न-कुछ सा लगता है। उसके । वंदन ध्यान । लघुता समता एकता नवधा भक्ति प्रवान।" यश का गान हृदय के तमस् को भगाने में पूर्ण समर्थ है। नाटक समयसार में इस नौधा भक्ति के उद्धरण बिखरे भक्त उससे 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की याचना करता है। उससे मलिन बुद्धि शुद्ध हो जाती है। इस भांति जिनेन्द्र विम्ब की छबि को महिमा स्पष्ट ही है। नाटक समयसार की भाषा बनारसीदास ने केवल निष्कल भौर सकल ब्रह्म की कवि बनारसीदास ने अपने प्रर्धकथानक की भाषा ही नहीं, अपितु उन सब साधुओं की भी वन्दना की है. को 'मध्य देश की बोली' कहा है। डा. हीरालाल जैन ने जो सदगुणों से युक्त हैं। उन्होंने लिखा है कि मनिराज 'मध्यदेस की बोली' की व्याख्या करते हुए लिखा है, ज्ञान के प्रकाश तो होते ही है, सहज सुखसागर भी होते "बनारसीदास जी ने अर्धकथानक की भाषा में ब्रजभाषा हैं, अर्थात् ज्ञान के उत्पन्न होते ही उन्हे परम सम्ष स्वतः की भूमिका लेकर उस पर मुगलकाल मे बढ़ती हुई प्रभाव. प्राप्त हो जाता है। वे प्रयत्नशील नही होते पौर सुख शाली खड़ी बोली को पुट दी है, और इसे ही उन्होंने मिल जाता है। पापी शरणागत को भी वे शरण देते हैं। 'मध्यदेस की बोली' कहा है, जिससे ज्ञात होता है कि यह उन्हे मौत का भय नही सताता। वे धर्म की स्थापना और मिश्रित भाषा उस समय मध्य देश में काफी प्रचलित हो भ्रम का खण्डन करते है। बे कर्मों से लड़ते है, किन्तु चुकी थी।" डा० माताप्रसाद गुप्त का कथन है, "यद्यपि विनम्र होकर, कोष अथवा भावावेश के साथ नही । ऐसे मध्य देश की सीमाये बदलती रही है, पर प्राय: सदैव ही
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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