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________________ मध्ययुग का एक मन्यातमिया नाटक चार खडी बोली और ब्रजभाषी प्रान्तों को मध्य देश के अन्तर्गत द्वारा मासान बनाने की प्रवृत्ति नाटक समयसार में भी माना जाता है और प्रकट है कि मर्घकथानक की भाषा में पाई जाती है। जैसे-निह (निश्चय), हिग्दै (हस्य), ब्रजभाषा के साथ खड़ी बोली का किचित् सम्मिश्रण है। विवहार (व्यवहार), सुभाव (स्वभाव). शकति (शक्ति), इसलिए लेखक का भाषा विषयक कथन सर्वथा संगत जान सासत (शाश्वत), दुन्द (द्वन्द्व), जगति (युक्ति), पिर पड़ता है।" यह सत्य है कि प्रर्धकथानक मे खड़ी बोली मोर (स्थिर), निरमल (निर्मल), मूरतीक (नत्तिक), सरूप ब्रजभाषा का समन्वय है । इस भांति वह जनसाधारण की (स्वरूप), मुकति (मुक्ति), अभिप्रंतर (मध्यंतर). भाषा है। पं० नाथ राम प्रेमी ने 'बोली' को बोलचाल की प्रध्यातम (पध्यात्म), निरजरा (निर्जरा), विभचारिती भाषा कहा है। मध्यदेश की बोली ही मध्यदेश की बोल- (व्यभिचारिणी), रतन (रस) मादि। 'य' के स्थान पर चाल की भाषा थी। 'ज' का प्रयोग हुमा है। जैसे-जथा (यथा), जथारथ बनारसीदास ने अर्धकथानक बोलचाल की भाषा में (यथार्थ), जथावत (यथावत), जोग (योग), विजोग लिखा, किन्तु उनके अन्य ग्रंथ साहित्यिक भाषा मे है। (वियोग) भोर माचरज (प्राचार्य)। कोई स्थान ऐसा नरी 'साहित्यिक' का तात्पर्य यह नही है कि उसमें से खड़ी जहाँ 'य' का प्रयोग हुमा हो। बोली और ब्रजभाषा निकल कर दूर जा पड़ी हों। रही तद्भवपरक प्रवृत्ति के होते हुए भी नाटक में संस्कृत दोनों किन्तु संस्कृत-निष्ठ हो जाने से उन्हें 'साहित्यिक' की निष्ठा ही अधिक है, अर्थात् प्रर्घकथानक की भांति सज्ञा से अभिहित किया गया। अर्धकथानक में प्रत्येक चलताऊ शब्दों का प्रयोग नहीं के बराबर है। भले ही स्थान पर 'श' को 'स' किया गया है, जैसे वहा शुद्ध को परपरिणति को परपरिनति कर दिया गया हो किन्तु शब्द सद्ध, वंश को बस और पार्श्व को पारस लिखा है, किन्तु तो संस्कृत का ही है। इस श्रेणी में उपर्युक्त शब्दों को नाटक समयसार मे अधिकाशतया 'श' का ही प्रयोग है। लिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सानवन्त, कलावन्त, शुद्ध चेतना, शुद्ध प्रातम और शुद्धभाव । इसी प्रकार सम्यक्त्व, मोक्ष, विचक्षण और निविकल्प मादि पधिकांश प्रशुभ, शशि, विशेषिये, निशिवामर और शिवसत्ता प्रादि। सस्कृत के तत्सम शब्दो का प्रयोग हुमा है। उर्दू-फारसी अर्धकथानक में 'प' के स्थान पर 'स' का प्रादेश देखा के शब्द अर्धकथानक मे भरे पड़े हैं, किन्तु समूचे नाटक जाता है, किन्तु नाटक समयसार मे सव स्थानो पर 'ष' का समयसार मे बदफैल पोर खुरापाती जैसे शब्द दो-चार से ही प्रयोग हुप्रा है। उस समय 'ष' का ख उच्चारण होता अधिक नही मिलेंगे। बनारमीदास उर्द-फारसी के अच्छे था, प्रतः लिपि में वह 'ख' लिखा हुआ मिलता है। किन्नु जानकार थे। उन्होंने जौनपुर के नवाब के बड़े बेटे चीनी ऐसा बहुत कम स्थानों पर हुअा है। विषघर, भेष, दोष, किलिच को उर्द-फारसी के माध्यम से हो सस्कृत पढ़ाई विशेष और पिऊष मादि मे ष का ही प्रयोग है, किन्तु थी। किन्तु नाटक गमयमार का विषय ही ऐसा था, पोष के स्थान पर पोख, विशेपिये के स्थान पर विशेखिये, जिसके कारण वे फारसी के शब्दो का प्रयोग नहीं कर प्रभिलाष के स्थान पर अभिलाख में ख देखा जाता है। सके। बनारसीदास ने विषयानुकल ही भाषा का प्रयोग किया है । यह उनकी विशेषता थी। अर्घ कथातक में 'ऋ' कही-कही ही सुरक्षित रह पाया भाषा का मौन्दर्य उसके प्रवाह मे है, मस्कृत अथवा है, किन्तु नाटक समयसार में उसको कही पर भी स्वरादेश फारसी निष्ठा में नही। प्रवाह का अर्थ है भाव का गुम्फन नही हुमा है। जैसे अर्घकथानक मे दृष्टि' को 'दिष्टि' का ___ के साथ अभिव्यक्तीकरण । नाटक समयसार के प्रत्येक पद्य प्रयोग किया गया है, नाटक समयसार मे वह दृष्टि ही मे भाव को सरसता के साथ गया गया है, कही विशृव. है। इसके अतिरिक्त कृपा, कृपाण, मृपा मादि शब्द ऋका- लता नही है, लचरपन नही है। एक गुलदस्ते की भांति रात्मक है। सुन्दर है। दृष्टान्तों की प्राकर्षक पंखुड़ियो ने उसके संस्कृत के संयुक्त वर्गों को स्वरभक्ति या वर्ण लोप के मौन्दर्य को और भी पुष्ट किया है। विचारों को अनु.
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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