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________________ श्रमण संस्कृति की प्राचीनता : पुरातत्व और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में है। "मुनयो वातरशना: पिश गा बमते मला" का अर्थ चराई जा रही थी। उस समय के शी के सारथी ऋषभ के डा हीरालाल जैन ने सायण भाष्य की सहायता में इस वचन से वे अपने स्थान पर लौट पायी।" प्रकार किया है-"प्रतीद्रियार्थदर्शी वातरशना मनि मल जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के अनुसार भगवान ऋषभदेव जब धारण करते है जिससे पिंगल वर्ण दिखाई देते है। जब व श्रमण बने तो उन्होंने चार मष्टि केशों का लोंच किया वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते है. था। सामान्य रूप से पांच-मष्टि केशलोंच करने की परम्परा अर्थात् रोक लेते है तब वे अपने तप की महिमा से देदी- है। भगवान ऋषभदेव केशों का लोंच कर रहे थे। दोनों प्यमान होकर देवता-स्वरूप को छोड़कर हम मनोवृत्ति से भागों के केशों का लोंच करना अवशेष था। उस समय उन्नतवत् उत्कृष्ट प्रानन्द सहित वायु भाव को, अशरीरी प्रथम देवलोक के इन्द्र शकेन्द्र ने ऋषभ देव से निवेदन ध्यानत्ति को, प्राप्त हो जाते है और तुम साधारण मनुष्य किया कि इतनी सुन्दर केशराशि को रहने दें। ऋषभदेव हमारे बाह्य शरीर मात्र को देख पाते हो। हमारे सच्चे ने इन्द्र की प्रार्थना से उसको उसी प्रकार रहने दिया। प्राभ्यन्तर स्वरूप को नहीं।" कशी मुनि भी वातरशन की श्रेणी के ही थे। तैत्तिरीयारण्यक मे भगवान ऋषभ और वृषभ : डा० राधाकृष्णन कहते है "जैन परम्परा के अनुसार ऋषभदेव के शिष्यो को वातरशन ऋषि उर्व मथी कहा जैन धर्म का प्रारम्भ ऋषभदेव से होता है जो सदियों से पहले हो चुके थ । ऐसे प्रमाण मिलते है जो बताते हैं कि श्रीमद् भागवत पुराण में लिखा है -- स्वय भगवान ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी तक ऋषभदेव की उपासना करने विष्णु महाराजा नाभिराज का प्रिय करने के लिए उनके रनिवास में महारानी मरुदेवी के गर्भ मे पाये। नन्होने वाले लोग थे । इसमें कोई सन्देह नहीं कि जैन धर्म वर्ध मान और पार्श्वनाथ के पहले भी था। वातरशना श्रमण ऋषियो के धर्म को प्रकट करने की इच्छा से यह अवतार ग्रहण किया। जैन ग्रन्थो में ऋषभ को हिरण्यगर्भ भी कहा है क्योकि उनके गर्भ में पाने पर प्राकाश से स्वर्ण की वर्षा ऋग्वेद में भगवान शृपभदेव की स्तुति केशी के रूप हुई थी। में की गई है।वानरशना मनि प्रकरण मे प्रस्तुत उल्लेव यथा-गम्भट्ठियस्स जस्स उ हिरण्णवट्ठी संकटणा पारिया। पाया है, जिससे स्पष्ट है कि केशी ऋषभदेव ही थे। तेणं हिरण्णगभी जयम्मि उवयिज्जए उसमो॥ तण हिर अन्यत्र ऋग्वेद मे के शो और वृषभ का एक साथ उब्लेख अर्थात् जिनके गर्भ मे पाने पर सुवर्ण को वृष्टि हुई, भी प्राप्त होता है। मुगल ऋषि की गायें (इन्द्रियां) इसी से ऋषभ जगत मे हिरण्यगर्भ कहलाये। ८४. वात रशनाः वातरशनस्य पुत्रा: मुनयः प्रतीन्द्रियार्थ- मुद्गलानीम् । -ऋग्वेद १०१।१०२।६ ' दशिनो जतिवात जुतिप्रभयतः पिशगा पिशगानि ८६. जम्बूद्वीप प्रज्ञत्ति वक्षस्कार २, सू० ३० कपिलवर्णानि मला मलिनानि वत्कल रूपाणि वासासि ... Indian Philosophy Vol-I, P. 227 "Jain वसते पाच्छादयन्ति । -सायण भाष्य १०११३६०२ tradition ascribes the origin of the system ८५. ऋग्वेद : सायणभाष्य--१०५७ to Rishabhadeva, who lived many centu. ८६. वात रशना ह वा ऋषयः श्रमणा उर्च मथिनो बभूवुः। ries back. There is evidence to show that ---तैत्तिरीयारण्यक २०७१ so far back as the first ceutury B. C. there ८७. केश्य ग्नि केशी विष केशी विमत्ति रोदसी। were people who were worshipping Rishaकेशी विश्वं स्वदशे केशीदं ज्वोतिरुच्यते ।। bhadeva, the first Tirtbapkara. There is 4. ककर्दवे क्षमो युक्त पासीदवावचीत्सारथिरस्य केशी no doubt that Jainism prevailed even दुईंयुक्तस्य द्रवतः सहानस ऋच्छन्तिष्मा निष्पदो before Vardbaman or Parshvanath. केशी
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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