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________________ ६२, वर्ष ३१, कि०२ अनेकान्त प्राप्त होते है। वस्तुतः कवि की इस लघुकृति में प्राचीन कवि या साहित्यकार के अस्तित्व की सम्भावना नहीं की हिन्दी के विकास की एक निश्चित परम्परा वतमान है। जा सकती। रस की अमत स्रोतस्विनी प्रवाहित करने के महाकवि रइधू मूलतया अपभ्रश के कवि है। प्रतः के कवि है। अतः साथ मध्यकालीन भारतीय संस्कृति के चिरन्तन प्रावों उनकी तीन कृतियां छोड़कर शेष सभी अपभ्रश भाषा मे भाषा म की प्रतिष्ठा करने वाला यह प्रथम सारस्वत है, जिसके ही निबद्ध है। उनकी अपभ्रंश परिनिष्ठित अपम्रश है, पर व्यक्तित्व में एक साथ इतिहासकार, दार्शनिक, प्राचार. उसमे कही कही ऐसी शब्दावलियों भी प्रयुक्त है, जो शास्त्र-प्रणेता एवं क्रान्ति द्रष्टा का समन्वय हुअा है। प्राधनिक भारतीय भाषामो की शब्दावली से समकक्षता कवि की उपलब्ध समस्त रचनायो का परिशीलन रखती है। उदाहरणार्थ कुछ शब्द यहा प्रस्तुत है- बिहार सरकार के शिक्षा विभाग की ओर से 'अपभ्रंश के टोपी, मुग्गदालि (मूग की दाल), लदगउ (ले महाकवि रइघ की रचनामों का पालोचनात्मक परि. गया), साली (पत्नी की बहिन), पटवारी, बक्कल बोली का बाहन), पटवारा, बक्कल शीलन' नामक शोधग्रन्थ के रूप मे शीघ्र ही प्रकाशित हो (बन्देली, बकला-छिलका), ढोर, जगल, पोदलु, (पोटली), रहा है तथा 'जीवराज ग्रन्थमाला', शोलापुर (महाराष्ट्र) खट (खाट), गाली, झड़प्प, खोज (खाजना), लकड़ी, की पोर से 'रइघ-ग्रन्थावली' के रूप में समग्र रइधुपीट्टि (पीट कर), ढिल्ल (ढीला) आदि । साहित्य १६ भागों में सर्वप्रथम सम्पादित होकर प्रकाशित बहुमुखी प्रतिभा के धनी महाकवि रइधू निस्सन्देह होने जा रहा है। उसका प्रथम भाग प्रकाशित है तथा ही भारतीय वाङ्मय के इतिहास के एक जाज्वल्यमान द्वितीय एवं तृतीय भाग यन्त्रस्थ है। इनके प्रकाशन से नक्षत्र है । बिपुल एव विविध साहित्य रचनामो की दष्टि। श्रा को दृष्टि कई नवीन तथ्यों पर प्रकाश पड़ने की सम्भावनाएं है। से उनकी तुलना में ठहरने वाले किसी अन्य प्रतिस्पर्धी 000 (पावरण पृ. ३ का शेषाष). हरिवशपुराण का समस्त वजन किसी न किसी प्रयथार्थ है। नंगम, मग्रह, व्यवहार ऋजुसूत्र, शब्द, समभि प्रकार से मुक्ति प्रादि कार्यों से सम्बद्ध है । तीर्थंकरो, पच रूढ प्रौर एवमभत- ये सात नय है। पूर्व तीन तो द्रव्यापरमेष्ठियो के स्तवन के साथ-साथ विभिन्न प्राचारो और शिक के भेद है और प्रवशिष्ट चार पर्यायाथिक के भेद है। व्यवहारो का वर्णन किया गया है । पुराण म सर्वतोभद्र,३२ पापो की पाच प्रणालिया है --हिंसा, असत्य, स्तेय, महासर्वतोभद्र,"चान्द्रायण' मादि अनेक व्रतो, उपवासो की कुशील और परिग्रह । इनसे विरक्त होना चारित्र है।३६ विधियो एवं उनके फलो का विस्तृत विवेचन किया गया है। उक्त पाचों पापो से पूर्णत: विरक्ति का नाम सम्यक् दर्शन के प्रमुख तीन अग है--(१) सम्यग्दर्शन चारित्र है। व्यवहार नय और निश्चय नय को क्रमशः (२) सम्यग्ज्ञान और (३) सम्यक्चारित । जैनागम मे श्रावक और मुनि पालन करते है। जीव, जीव, भास्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा, मोक्ष, पाप व्रत, उपवास, तप आदि का धार्मिक साधना से और पूण्य ये नौ तत्त्व कहे गये है। इन जीवाजीवादि अभिन्न सम्बन्ध है। इस देश में लोग नाना प्रकार के तत्वार्थों की सच्ची श्रद्धा का नाम गम्यग्दर्शन है।५ व्रतोपवास आदि धर्म भावना से करते रहे है। जैनेतर वस्तु अनन्तधर्मात्मक होती है। उनमें से किसी एक सम्प्रदायों में चान्द्रायण व्रत करने का प्रचलन रहा है। निश्चित धर्म का ग्रहण करने वाला ज्ञान नय कहलाता स्वय चन्द्रमा के द्वारा चान्द्रायण व्रत किये जाने के व्याज है । इसके द्रव्याथिक और पर्यायाथिक के भेद से दो भेद से हरिवंशकार ने इस व्रत के प्रचलन का उल्लेख किया हैं--इनमे द्रव्याथिक नय यथार्थ है और पर्यायाथिक तय है। (३४वा सर्ग)। ३२. हरिव शपुराण, ३४३५२-५५। ३३. हरिवशपुराण, ३४१५७-५८। ३४. हरिवशपुराण, ३४१६० । ३५. तत्वार्थश्रद्धानम् सम्यग्दर्शनम्, तत्वार्थसूत्र, ११२ ३६. हिसानृतचौर्यम्यो मैथुनसेवापरिग्रहाम्या च । पाप प्रणाणिकाम्या विरति: संज्ञस्य चारिज्ञम् ।। ३७ हरिवशपुराण, १०७ । -रत्नकरण्डश्रावकाचार ।। ४६ ।। ३८. इस व्रतमे कृष्ण प्रतिपदा के दिनसे चन्द्रमा घटने के साथ-साथ प्रतिदिन एक-एक ग्रास भोजन घटाते हुए ममावस्या के दिन पूर्ण निराहार रहा जाता है, और शुक्ल प्रतिपदा को एक ग्रास भोजन लेकर प्रतिदिन एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए पूर्णिमा के दिन केवल १५ ग्रास माहार लिया जाता है। इस प्रकार यह व्रत एक मास मे पूर्ण होता है। श्रावकाचार । ५ ग्रास माहार शुक्ल प्रतिपदा को प्रतिदिन एक-एक
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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