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________________ नररत्न साहू जी और जैन संस्कृति का उद्धार 0 श्री अगरचन्द नाहटा, वीकानेर मानव मानव में बहुत अन्तर है जैसे कि हीरे व एक मोर साहू जी ने माता के नाम से मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला कांकरे में । एक मनुष्य दूसरो का हृदय सम्राट् बन जाता चालू को जिसमें बहुत से उत्कृष्ट जैन ग्रन्थों का प्रकाशन है, दूसरा दूसरों के लिए प्राफत बन जाता है। अपनी हपा व हो रहा है। दूसरो पोर, सर्वजनोपयोगी विविध प्रवृत्तियों से ही मनुष्य नर नारायण बन सकता है और प्रकार का उच्च स्तर का साहित्य प्रकाशित किया जा रहा अपनी दुष्प्रवृत्तियों मे पशु व नारकीय भी बन जाता है। है । साहित्य के क्षेत्र में इस प्रकार का व इतना बड़ा काम इसलिए जो जो व्यक्ति अपने गुणो का उत्थान करते है तथा जैन समाज मे तो दूसरे किसी ने नही किया। दूसरो के उत्थान में सहयोगी बनते है, वे सभी का आदर जैन तीर्थों के उद्वार में भी साहू जी ने मुक्तहस्त एवं पाते है व स्वय का भी कल्याण करते है। परन्तु अधिकतर उदार भाव से लाखों रुपये खर्च किये और अब भी लोग स्वार्थी होते है, परमार्थी बहुत ही कम । माहू जी उनके फण्ड से वह काम चाल है, निससे अनेको जैन तीर्थों, का जीवन हमारे मामने है। उन्होने अपनी खवं उन्नति मन्दिरो और मूर्तियों का संरक्षण हो सका । जैन शास्त्रानुकी। खूब धन कमाया, पर साथ ही अच्छे कामों में खूब सार नये मन्दिर व मूनि निर्माण की अपेक्षा जीर्णोद्धार मे लगाया भी। सभी से मदव्यवहार रखा। धन का मद माठ गुना फल माना गया है । साहू जी ने इस कार्य द्वारा नही किया। विलामिता म ये नही। अपने व्यवहार को बहुत बड़ा पुण्य अर्जन किया। साथ ही, नाम की भी बहुत संतुलित रखा, इसीलिए मभी के प्रिय भाजन हुए। कामना नहीं की। काम को ही महत्त्व दिया। यह विशेष हजारो हजारों मखो से उनकी प्रशसा के गीत गाये जाते रूप से उल्लेखनीय है । है भोर वे अपनी सुकृतियों से मर कर भी अमर बन गये। देवगढ के जैन कला धाम तीर्थ का दर्शन-वदन करने उनका कीर्तिध्वज बडी ही ऊँचाई पर लहरा रहा है। मै गया तो वहा देखा कि साहू जी ने वहां एक संग्रहालय उनकी सहृदयता सबके दिल मे घर कर गई है। भवन भी बना रखा है, जिसमे बहुत सी कलापूर्ण भव्य मूर्तियो का महत्त्वपूर्ण संग्रह है। इस संग्रहालय द्वारा नष्ट साहू जी ने थोड़े वर्षों में जितनी अधिक उन्नति की, होती हई उत्कृष्ट जैन कला कृतियों का सरक्षण हुमा देख उतनी बहुत ही कम व्यक्ति कर पाते है। उनकी नम्रता व उनके कलानुराग के प्रति सद्भावना जगी। सरलता, सज्जनता और उदारता से जो भी उनके सम्पर्क वैसे तो साह जी से हमारा परिचय काफी पहले से मे पाये, प्रभावित हुए । सौभाग्य से रमा देवी जैसी वि. था। कलकत्ते में उनके भवन मे जाने व उनसे बातचीत लक्षण और सुलक्षण वाली धर्मपत्नी उन्हे मिली। इससे करने का प्रसंग मिलता रहा है । पर भगवान महावीर के उनकी सुकृतियों को बढ़ावा मिला मौर चार पाद लग २५००वें निर्वाण महोत्सव के प्रसग से हमारी घनिष्ठता गये । भारतवर्ष में एक लाख रुपये का प्रतिवर्ष साहित्यिक बढ़ी। वे उस महोत्सव के कार्याध्यक्ष थे। अतः सदस्य पुरस्कार देने की योजना अभूतपूर्व थी। यद्यपि विदेशो में होने के नाते मेरा कई मीटिंगों में उनसे मिलना होता यह परम्परा भारत से पहले प्रारम्भ हो चुकी थी, पर रहा। मेरी साहित्य साधना और जैन धर्म की गहरी पैठ भारत में किसी का भी ध्यान इस ओर नही गया। अतः से वे भली भाति परिचित थे। मतः समय-समय पर वे मेरे साहू दम्पत्ति ने इसमे पहल की तथा सदा के लिए एक सामने अपनी जिज्ञासायें व प्रश्न रखते एवं परामर्श भी कीर्तिमान स्थापित कर दिया। भारतीय ज्ञानपीठ की लेते । उनके दिल्ली के व्यावसायिक कार्यालय एवं उनके स्थापना और इतने बड़े साहित्य के प्रकाशन का काम निवास स्थान पर भी जाने व बातचीत करने का अवसर भी जैन समाज के लिए अपने ढग का एक ही कार्य है। (शेष पृष्ठ ४ पेर)
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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