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________________ २०, वर्ष ३१,कि०१ अनेकान्त उसी का अनुसरण करते रहे ; उदाहरणार्थ खाने पाजम मे इनकी चार कृतियां उपलब्ध हैं। हरिवंशपुराण की शेर खाँ' १४७६, ८४ और ८८-८९ के शिलालेखों दो प्रतिया-एक पारा के जैन सिद्धान्त भवन और पौर खाने प्राजम अफजल खाँ १५२० ई. के शिलालेख दूसरी पामेर के भट्टारक महेन्द्र की ति के शास्त्र भडार मेमे इमी विरूद के माथ उल्लिखित है। इमी प्रकार माडव पाई गई है। परमेष्ठी प्रकाशसार की एकमात्र प्रति ग्रामेर सुलतान के लिए 'महाराजाधिरज' का उपयोग गयाम-शाह ज्ञान भण्डार में है। योगसार या जोगसार श्रुतकीति का से महमूदशाह द्वितीय तक होता रहा । मालवा सुलतानो तीसरा ग्रथ है। चौथा प्रथ धर्मपगीक्षा है, जिसकी एक ने प्राम जनता की राजभक्ति और स्वामीभक्ति का जहां मात्र अपूर्ण प्रति स्वर्गीय डा. हीरालाल जैन के पास थी। लाभ उठाया, वहा साथ ही गैर मुस्लिम जनता का हृदय में चारो अथ श्रतकोति ने माडवगढ़ के सुलतान गयासुद्दीन भी मोहने के साधन प्रपनाये ; मन्दिरो को उदारतापूर्वक और युवराज नसीर शाह के राज्यकाल मे सं० १५५२सहायता देने के साथ-साथ जैन श्रेष्ठियो को उच्च पद ५३ (१४६५-६६ ईस्वी) मे ही लिखे और प्रतिया भी तथा सम्मान प्रदान किया; सुदृढ़ शासन के द्वारा व्यव जो मिली है वे भी इसी सन्-सवत की है। साय तथा व्यापार को उन्नति दी। इतिहासकार फरिश्ता श्रुतकीति के इन ग्रन्थों मे दमाबादेश के जेरहट नगर ने गयास खिलजी को भोगी-विलासी लिखा है । किन्तु उसके समय में शिलालेखो का बाहुल्य था तथा ग्रन्थ के 'महाग्वान मोजखान" का मोर जेरहट नगर के नेमी श्वर जिनालय मे बैठ कर ग्रंथो के निर्माण का उल्लेख है। प्रशस्तियो में बड़ी संख्या में उसका उल्लेख है और ये शिलालेख और प्रशस्तिया दूरवर्ती क्षेत्रो मे पाई गई है। हरिवश पुराण की प्रारा प्रति मे लिखा है-"सवत १५५३ __ स्वय चंदेरी में जेनियो के भट्टारकीय प्रान्दोलन का वर्षे क्वावादि दूज सुदि (द्वितीया) गुरी दिने प्रद्येह श्री केन्द्र इसी समय में बना। पडित फूलचन्द शास्त्री लिखते मंडपाचल गढदुर्गे सुलतान गयासुद्दीन राज्ये प्रवर्तमाने श्री दमोवादेश महाग्वान भोजखान वर्तमाने जेरहट स्थाने हैं कि-"मूलसघ नन्दि प्राम्नाय की परम्परा मे भट्टारक मोनी श्री ईसर प्रवर्तमाने श्री मूलसंधे बलात्कारगणे पग्रनन्दी का जितना महत्त्वपूर्ण स्थान है, उनके पट्टधर सरस्वती गच्छे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्रारक श्री पन. भट्रारक देवेन्द्रकीति का उससे कम महत्त्वपूर्ण स्थान नही नन्दिदेव तस्य शिष्य मडलाचार्य देविन्दकीर्तिदेव तच्छिष्य है। उनका अधिकतर समय गुजरात की अपेक्षा बुन्देलखंर मे और उससे लगे हुए मध्यप्रदेश में व्यतीत हुप्रा है। मडलाचार्य श्री त्रिभुवनकीर्तिदेवान् तस्य शिष्य श्रुतकीति हरिवंशपुराणे परिपूर्ण कृतम ...।" धर्मपरीक्षा ग्रंथ में चंदेरी पट्ट की स्थापना का श्रेय इन्ही को प्राप्त है।'' उस समय जेरहट नगर के सम्पन्न होने की सूचना मिलती शास्त्री जी की मान्यता यह है कि वि० सं १४६३ है किन्तु 'जेरहट' अभी तक खोजा जा रहा है, इसका (सन् १४३६ ईस्वी) के पूर्व देवेन्द्र कीति भट्टारक पद को पता नही चलता । सागर जिले में रायबहादुर हीरालाल अलंकृत कर चुके थे। ....... ऐसा लगता है कि वि० ने 'जेरठ' गाव का उल्लेख किया है, लेकिन यहां मन्दिर सं० १४६३ के पूर्व ही चन्देरी पट्ट स्थापित किया जा के अवशेष पाये नही जाते । तो फिर 'जेरहट' कहा गया चका होगा।... . . पोर देवेन्द्रकीति चदेगे मण्डला यह प्रश्न हल करने की आवश्यकना है। चार्य बन चुके होंगे। भट्टारक देवेन्द्रकीति के शिष्य भट्टारक विभुवनीति मण्डलाचार्य हुए पौर वि० सं० १५२५ अब रहा मूल प्रश्न महाखान मोजखान का, तो यह (सन् १४६८ ई.) के पूर्व ही चन्देरी पट्ट पर अभिषिक्त कोई राज्यपाल का नाम हो ऐसा जान नही पडता, यद्यपि हो गये थे जो वि. स. १५२२ (१४६५ ई.) के इसे कुछ लोग महाखान भोजखान भी पढ़ते हैं। इन पास-पास का समय निर्धारित किया गया है। पंक्तियों के लेखक का मत है कि यहां कवि श्रुतकीर्ति कवि श्रुतकीति, त्रिभुवनकीति के शिष्य थे। अपभ्रंश अथवा लिपिकार का प्रभिप्राय किसी विशेष व्यक्ति से न १. अनेकान्त, वर्ष २६ पृ० १३ । २. वही।
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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