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________________ देश के बौद्धिक बीवन में योगदान तर प्रकलंक. हरिभद्रमूरि, सिबसेन, अनन्तवार्य, गये पोर सर्वप्रथम इसीध्याकरण के सत्रों का अपभ्रंश रूप विद्यानन्द, अनन्तकीति, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्रदेव सूरि, करके पढ़ाया जाने लगा। 'मो नामा सीधम' (मोम नमः मलिषेण प्रादि दार्शनिकों ने देश के बौद्धिक धरातल को सिबेभ्यः), पंचोवरणा (पंचवरणाः), बऊ षिवारा (तो समन्नत बनामें में उल्लेखनीय योगदान किया और अपने स्वरो) जैसे सूत्रों के साथ मध्ययन प्रारम्भ किया जाने दार्शनिक विचारों से देश के वातावरण को चिन्तनशील लगा और छात्रों को याद कराया जाने लगा। एक पोर बनाया। १३वीं शताब्दी में होने वाले हेमचन्द्राचार्य बहु- वैदिक विद्वान जहां केवल संस्कृत में ही चिपके रहे, वहाँ जैनाचार्यों ने देश की सभी लौकिक भाषामों का मादर श्रुत विद्वान थे जिन्होंने समूचे भारत मे ज्ञान के प्रति जनजन मे अपूर्व श्रद्धा उत्पन्न की। उनकी लेखनी सशक्त किया और उनमे नयी-नयी कृतियों का निर्माण करके जनथी। वाणी मे अद्भुत प्राकर्षण था एवं वे चुम्बकीय जन में ज्ञान प्रसार का विशेष प्रयास किया। व्यक्तित्व के धनी थे । ज्ञान के किसी भी प्रग को उन्होंने जैनाचार्यों ने बौद्धिक क्षेत्र में पोर भी पनेक क्रान्तिअछता नही छोड़ा। काव्य लिखे। पुराण, उमाकरण, छन्द, कारी प्रयोग किये। उन्होंने भाषा विशेष से चिपके रहने ज्योतिष कोष ग्रादि सभी पर तो उन्होंने लिखा और देश की नीति को छोड़कर उन सभी भाषामों में साहित्य में हजारों-लाखों को बुद्धिजीवी बनाने में अपना योग निर्माण किया जो जनभाषायें थी। इनमें अपभ्रंश हिन्दी दिया । गुजराती, राजस्थानी एवं मराठी भाषामों के नाम विशे. व्याकरणों का योगदान षत: उल्लेखनीय हैं। वैयाकरणो ने दार्शनिकों के समान ही देश के बौद्धिक अपभ्रंश में साहित्य निर्माण विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मेधा थक्ति अपभ्रंश भाषा के महाकवि स्वयम्भ ने लौकिक एवं के स्वतंत्र विकास और चिन्तन की परमोच्च स्थिति का प्रादेशिक भाषामों को समान प्रादर देकर देश के बौद्धिक निर्माण करने में व्याकरण का पहला स्थान रहा है। विकास में जबरदस्त योग दिया। उन्होंने उन सभी तत्वों पूज्यपाद प्रथम जैनाचार्य थे जिन्होंने प्रष्टाध्यायी पर को शपना लिया जो तत्कालीन समाज मे अत्यधिक लोकटीका लिखी और जनेन्द्र-व्याकरण की रचना की। इस प्रिय थे। इसलिए एक तो जन सामान्य में उनकी कृतियों पर अभयनन्दि (८वी शताब्दी) एव सोमदेव (११वी को पढ़ने में मभिरुचि जाग्रत हुई; दुसरे, इन प्राचार्यों एवं शताब्दी) ने टीकाएं लिखकर वे उसके प्रचार में सहायक विद्वानों को अपनी कृतियो के माध्यम से अपने क्रान्तिकारी बने । नवमी शताब्दी मे होने वाले शाकटायन ने शब्दानु- विचारों को जनसाधारण तक पहुंचाने में सहायता मिली। शासन की रचना की। इस कृति की टीका भी स्वयं ने इस दृष्टि से पुष्पदन्त, धनपाल, वीर, नयनन्दि, नरसेन, ही लिखी जिसका नाम अमोघवृत्ति है। यह व्याकरण यश:कीति एव रइधू के नाम विशेषत: उल्लेखनीय है। शाकटायन के नाम से ही प्रसिद्ध हो गया। ११वी शताब्दी यशःकीति को छोड़कर शेष सभी श्रावक थे, लेकिन समी में प्राचार्य हेमचन्द्र ने शब्दानुशासन लिखकर इस क्षेत्र मे बुद्धिजीवी थे। अपभ्रंश काव्यों एवं पुराणों के माध्यम से एक क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। इसी तरह शिववर्मा ने ज्ञान के प्रसार का जितना कार्य कवियों ने किया, वह एक नये कातन्त्र व्याकरण को जन्म दिया। यह व्याकरण साहित्यिक इतिहास का एक शानदार प्रध्याय है । इनकी प्रत्यधिक सरल एवं संक्षिप्त है। इसके प्रारम्भिक संधि सशक्त लेखनी के द्वारा जनप्रिय काव्यों के निर्माण के के सूत्र जन-जन के जीवन में उतर गये थे और जैन कारण कुछ समय तक तो पाठक प्राकृत एवं संस्कृत काव्यों विद्यालयों के अतिरिक्त ब्राह्मण पंडितों द्वारा भी अपनाये को भूला बैठे और चारों मोर अपभ्रंश काव्यो की मांग १. राजस्थान के जैन सन्त, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, प्रस्तावना ४. महावीर दौलगय नामावली-व्यक्तित्व एवं कृतित्व, २. जैन लक्षणावली, प्रस्तावना, पृ. १८ । प्रस्तावना, पृ.२। ३. जैन ग्रंथ भण्डासं इन राजस्थान, पृ. १६८ । ५. प्राकृत पौर अपभ्रंश साहित्य, पृ.१.२ ।
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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