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________________ ४२, वर्ष ३१, कि०२ अनेकान्त इज्यां वातां च दत्ति च स्वाध्याय संयमं तपः। जिनेन्द्र देव का गुणानुवाद करते हुए अभिषेक विधि श्रुतोपासकसूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ।। की प्रस्तावना करना प्रस्तावना है। पीठ के चारो कोणों इस लोक द्वारा षटकम -इज्या, वार्ता, दान, स्वाध्याय, पर जल से भरे हुए चार कलशों की स्थापना करना परा. संयम और तप का वर्णन करते हुए पूजा के चार भेद कम हो कर्म है। पीठ पर यथाविधि जिनेन्द्रदेव को स्थापित करना बतलाये हैं स्थापना है। ये जिनेन्द्रदेव है, यह पीठ मेरुपर्वत है, जल प्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम् । से पूर्ण ये कलश क्षीरोदधि से पूर्ण कलश है और मैं इन्द्र चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमाश्चाष्टाह्निकोऽपि च ॥ हू जो इस समय अभिषेक के लिए उद्यत हा हं, ऐसा विचार करना सन्निधापन है। अभिषेक के बाद प्रष्टद्रव्य नित्यपूजा, चतुर्मुखपूजा, कल्पद्रुमपूना और प्राष्टाह्निकपूजा। ये सब द्रव्य पूजा के ही प्रकार है। प्रतिदिन से पूजा करना पूजा है, और सबके कल्याण की भावना अपने घर से गन्ध, पुष्प, अक्षत इत्यादि ले जाकर करना पूजा का फल है। जिनालय में श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा करना सदार्चन प्राचार्य वसुनन्दी ने पूजा के ६ भेद बतलाये हैअर्थात् नित्य पूजा है। महा मुकूटबद्ध राजापो के द्वारा णामटूवणादब्वे खितं काले वियाण भावे य । जो पूजा की जाती है उसे चतुर्मुख पूजा कहते है। चक्र छविहया भणिया समास उ जिणवरि देहि ।। वर्ती राजापो के द्वारा किमिच्छिक दानपूर्वक जो पूजा की अर्थात्, नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव यह जाती है वह कल्पद्रुम पूजा है और प्राष्टाह्निक पर्व में छह प्रकार की पूजा जिनेन्द्र भगवान् ने सक्षेप मे कही है। महन्त प्रादि का नाम उच्चारण करके शुद्ध स्थान मे जो पूजा की जाती है वह पाष्टाह्निक पूजा है। इससे पूर्व के उपलब्ध साहित्य में पूजा के भेद नही मिलते है। पुष्प क्षेपण करना नामपूजा है। सद्भाव और प्रसद्भाव प्राचार्य सोमदेव ने पूजा के कोई भेद नही बतलाये। के भेद से दो प्रकार की स्थापना होती है। साकार वस्तु किन्तु पूजको के दो भेद अवश्य बतलाये है-एक पुष्पादि मे भगवान् के गुणो का प्रारोपण करना सद्भाव स्थापना में पूजा की स्थापना करके पूजन करने वाले और दूसरे है। प्रक्षत, कमल के बीज या किसी पुष्प में यह मंकल्प है। प्रतिमा (मूर्ति) का अवलम्बन लेकर पूजन करने वाले। करना कि यह अमुक देव है और वैसा उच्चारण करना प्रतिमा के प्रभाव मे पुष्पादि में महन्त, सिद्ध, प्राचार्य, असद्भाव स्थापना है। पं० माशाधर जी ने भी जिनउपाध्याय, साधु, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचा- प्रतिमा के न रहने पर अक्षत प्रादि में जिनेन्द्र की स्थापना रित्र की स्थापना करके प्रत्येक को अष्टद्रव्प से पूजा करने का विधान बतलाया है। जल, चन्दन, अक्षत मादि करना बतलाया गया है। उसके बाद क्रम से दर्शनभक्ति, द्रव्य से जो पूजा की जाती है उसे द्रव्यपूजा कहते हैं। ज्ञानभक्ति, चारित्रभक्ति, प्रहंद्भक्ति, सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, जिनेन्द्रदेव की जन्मभूमि, दीक्षाभूमि, केवलज्ञानममि और पंचगुरुभक्ति, शान्ति भक्ति और प्राचार्यभक्ति करना बत- मोक्ष प्राप्त होने की भूमि मे जो पूजा की जाती है वह लाया है। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रतिमा के प्रभाव क्षेत्रपूजा है। भगवान् के गर्भकल्याणक मादि के दिनों में में भी पूजा की जा सकती है। नन्दीश्वर पर्व के पाठ दिनो मे तथा अन्य पर्व के दिनों में सोमदेव ने यशस्तिलक मे पूजा की पद्धति या प्रकार जो पूजा की जाती है वह कालपूजा है और अनन्त को इस प्रकार बतलाया है लाभादि गुणो की स्तुति करके जो त्रिकाल बन्दना की प्रस्तावना पुराकर्म स्थापना सनिधारनम् । जाती है वह भावपूजा है। पूजा पूजाफलं चेति षड्विय देवसेवनम् ॥ उपर्युक्त विवेचन से यही तात्पर्य निकलता है कि पूजा अर्थात् प्रस्तावना, पूराकर्म, स्थापना, सन्निधापन, पूजा दो प्रकार से की जाती है-द्रव्य से पोर भाव से । जो पौर पूजा का फल, इस तरह छह प्रकार से देव की पूजा साधु है वह भावपूजा करता है। किन्तु श्रावक द्रव्यपूजा की जाती है। मौर भाव पूजा दोनो ही कर सकता है। पं० प्राशाधर
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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