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________________ वर्ष ३१, कि.. अनेकान्त वास्तविक ज्ञान हुमा मोर समयसार का सही अर्थ समझ इसका नाम ही 'नाटक समयसार' रखा। सके। किन्तु, केवल अर्थ समझना और उसकी अनुभूति नाटक समयसारमें सात तत्त्व-जीव, बन्ध, अजीव, मानव, करना दो भिन्न बातें हैं। अनुभूति तभी हो सकती है, संवर, निर्जरा और मोक्ष भभिनय करते हैं। इनमें प्रधान जबकि अर्थ को साक्षात किया गया हो, अर्थात् अनुभूति होने के कारण जीव नायक है और प्रजीव प्रतिनायक के लिए केवल ज्ञाता ही नहीं, द्रष्टा होना भी प्रावश्यक उनके प्रतिस्पर्धा अभिनयों ने चित्रमयता को जन्म दिया है। हाकवि बनारसीदास ने प्राचार्य कुन्दकुन्द के समयसार जीव को अजीव के कारण ही विविध रूपों में नत्य करना की गाथानों का प्रमतचन्द्र की प्रात्मरूपाति टीका के पड़ता है। प्रास्मा के स्वभाव और विभाव को नाटकीय ढंग माध्यम से अध्ययन किया, प्राध्यात्मिक गोष्ठी में मनन से उपस्थित करने के कारण इसको 'नाटक समयसार' वहते किया और एकान्त में साक्षात् किया। इनके समन्वय से हैं। यह एक प्राध्यात्मिक रूपक है। एक स्थान पर प्रात्माकायत दुई मनभति ने 'नाटक समयसार' को जन्म दिया। रूपी नर्तक मत्तारूपी रंगभूमि पर ज्ञान का स्वांग बना कर बनारसीदास की दृष्टि में सच्ची अनुभूति ही सच्चा ब्रह्म नत्य करता है। पूर्वबध का नाश उसकी गायन विद्या है, है। तज्जन्य मानन्द परमानन्द ही है, उससे कम नही। नवीनबध का सवर ताल तोड़ना है, नि.शकित प्रादि पाठ बहकामधेन और चित्रवेलि के समान है। उसका स्वाद प्रग उसके मना प्रग उसके सहचारी है, समता का मालाप स्वरो का पंचामृत भोजन-जैसा है । नाटक समयसार मे यह पचामृत । उच्चारण है, निर्जरा की ध्वनि ध्यान का मृदग है। वह भोजन पग-पग पर उपलब्ध है। 'देह विनाशवान् है, गायन और नृत्य मे लीन होकर मानन्द मे सराबोर हैउसकी ऊपरी चमक-दमक धोका देती है', दर्शन के इस मरुस्थल में से फूटने वाला एक निर्मल जल का स्रोत "पूर्वबध नास सो तो संगीत कला प्रकास देखिए नवबघ रुधि ताल तोरत उछरिक । "रेत की-सी गढ़ी किधों मढ़ी है मसान की-सी, निसक्ति प्रादि प्रष्ट अग संग सखा जोरि अन्दर अन्धेरी जैसी कन्दरा है मल की। समता अलापचारी करै सुर भरिकै । ऊपर की चमक-दमक पटभूखन की घोखे, निरजग नाद गाज ध्यान मिरदग बाजे ___ लागे भली जैसी कली है कर्नल की। __छक्यो महानन्द मै समाधि रीझि करिक। मौगुन की प्रोडो महाभौड़ी मोह की कनोडी, सत्तारगभूमि मै मुकत भयो तिहूं काल माया की मसूरति है मूरति है मल की। नाच सुद्ध दिष्टि नट ग्यान स्वांग धरिक ॥' ऐसी देह याहि के सनेह याको सगति सो, प्रात्मा ज्ञानरूप है और ज्ञान तो समुद्र ही है। जब वह ह रही हमारी मति कोल के.से बल को॥" मिथ्यात्व की गाठ को फोड़कर उमगता है, तो त्रिलोक में समयसार की 'नाटक' संज्ञा व्याप्त हो जाता है । इसी को दूसरे शब्दों में यो कहा जा जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, 'गमयसार' सकता है कि जब पात्मा मिथ्यात्व की तोड़कर केवलज्ञान अध्यात्म का ग्रन्थ था, उसमे प्राचार्य कुन्दकुन्द के दार्श- प्राप्त कर लेता है, तो ब्रह्म बन कर घर-घर में जा विरा. निक विचार मुख्य हैं, भाव नहीं। उन्होने समयसार को जता है। इसी को कवि ने एक रूपक के द्वारा प्रस्तुत माटक संज्ञा से अभिहित नहीं किया। सर्वप्रथम प्राचार्य किया है। रूपक मे प्रात्मा को पातुरी बनाया गया है। अमृतचन्द्र ने समयसार को 'नाटक' कहा। किन्तु, केवल वह वस्त्र और आभूषणो से सजकर, रात के समय नाटयवह देने मात्र से कोई ग्रन्थ नाटक नहीं बन जाता। उसमे शाला मे, पट को प्राडा करके पाती है, तो किसी को भावोन्मेष को मावश्तकता बनी ही रहती है। वह प्रात्म- दिखाई नहीं देती, किन्तु जब दोनो पोर के शमादान ठीक ख्याति टीका मे नही हो सका । बनारसीदास ने समयसार करके परदा हटाया जाता है तो सभा के सब लोग उसको की 'नाटक' सज्ञा को सार्थक किया और इसी कारण उन्होंने भली भाति देख लेते है। यह ही दशा प्रात्मा की है
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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