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________________ मध्ययुग का एक अध्यातमियां नाटक कवि बनारसीदास ने 'नाटक समयसार' की रचना की थी। वे अपने युग के प्रख्यात साहित्यकार थे । यद्यपि उनका जन्म एक व्यापारी कुल में हुधा था, किन्तु वे अपने भावाकुल मन्तर मानस का क्या करते, जो सदैव कविता के रूप में प्रस्फुटित रहने के लिए व्याकुल रहता था उन्होंने पन्द्रह वर्ष की आयु मे ही एक 'नवरस रचना' fe डाली, जिसमें एक हजार दोहे-चौपाइयाँ थी। इस रचना में भने ही 'घासी का विसेस वरनन' था, किन्तु 'श्रासिखी काव्य-कला की दृष्टि से वह एक अच्छा काव्य था । इसका प्रमाण है । एक दिन, जब बनारसीदास ने उस कृति को गोमती में बहा दिया तो सहृदय मित्र हा-हा करते हुए घर लौटे। बनारसीदास की दूसरी कृति 'नाममाला' एक छोटा-सा शब्दकोश है। इसमें १७५ दोहे है । उसका मुख्य प्राधार धनजय की नाममाला है। किन्तु इसमें केवल संस्कृत का ही नही, भपितु प्राकृत मोर हिन्दी का भी समावेश है। अतः यह एक मौलिक कृति है। हिन्दी में इतना सरस शब्दकोश अन्य नहीं है । प्रागरे के दीवान जगजीवन ने वि० स० १७०१ मे बनारसीदास की ६५ मुक्तक रचनाओ को एक प्रभ्थ के रूप में संकलित कर दिया था। उसका नाम रक्खा था 'बनारसी विलास' । यह ग्रन्थ बम्बई धौर जयपुर से प्रकाशित हो चुका है। बना रसीदास का प्रारमचरित' अर्धकथानक के नाम से प्रसिद्ध है बनारसीदास चतुर्वेदी ने उसे हिन्दी का पहला प्रारम चरित माना है और इस दृष्टि से वह हिन्दी साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण घरोहर है। 'नाटक समयसार' बनारसीदास की सशक्त रचना है । सशक्त इसलिए कि उस युग की 'प्रध्यात्ममूला भक्ति' मे वह अनुपम है। उसका कोई सानी नहीं, तुलना नहीं अभिव्यक्ति परिमार्जित है, तो स्वामा विक भी। इसका निर्माण भागरे मे वि० सं० १६६३, आश्विन सुदी १२, रविवार के दिन हुआ था। उस समय बादशाह शाहजहाँ का सोरठा दोहे २४५ ईमास डा० प्रेमसागर जैन राज्य था। इस कृति में ३१० - इकतीसा ६ चौपाइयां ३७ पहिल पर ४ कुण्डलियाँ २० छप्पय है । नाटक समयसार का पूर्वाधार । । । 'नाटक समयसार' का मूलाधार था प्राचार्य कुन्दकुन्द का 'समयसार पाहू' प्राचार्य कुन्दकुन्द विक्रम संवत् की पहली शती में हुए है उनके रखे हुए तीन ग्रन्थ-समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय अत्यधिक प्रसिद्ध है। जैन परम्परा मे प्राचार्य कुन्दकुन्द भगवान् की भाँति ही पूजे जाते हे श्री देवसेन ने वि० सं० १९० मे अपने दर्शनसार नाम के ग्रन्थ मे लिखा है कि यदि कुन्दकुन्दाचार्य ने ज्ञान न दिया होता तो श्रागे के मुनिजन सम्यक् पथ को विस्मरण कर जाते । श्रुतसागर सूरिकृत 'षट्प्राभूत' की टीका के अन्त में उनको 'कलिकाल सर्वज्ञ' कहा गया है। चन्द्रगिरि और विन्ध्यगिरि के शिलालेखो मे उनकी प्रत्यधिक प्रशंसा की गई है। 'समयसार' म्रध्यात्म का सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ है। अपने स्वभाव और गुण पर्यायों में स्थिर रहने को 'समय' कहते है। जैन मान्यतानुसार छ: द्रव्य 'समय' सज्ञा से अभिहित होते है, क्योंकि वे सर्दव अपने तुणपर्यायो में स्थिर रहते हैं। इनमें भी भास्मद्रव्य ज्ञायक होने के कारण मारभूत है उसका मुख्यतया विवेचन करने से इस ग्रन्थ को समयसार कहते हैं। इसमें प्राकृत भाषा मे लिखी गई ४१५ गाथाएँ हैं । इसका प्रकाशन बम्बई, बनारस भोर मारोठ आदि कई स्थानों से हो चुका है । । इन प्राकृत गाथानों पर प्राचार्य अमृतचन्द्र ने वि० सं० की हवीं शती में 'श्रात्मख्याति' नाम की संस्कृत टीका कलशों के रूप में लिखी । माचायं ममृतचन्द्र प्रसिद्ध टीकाकार थे। उन्होंने केवल समयसार की ही नहीं, अपितु पंचास्तिकाय और तस्वसार की भी टोकायें लिखी है।
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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