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________________ स्वाध्याय परम तप है 9 श्रीमती रूपवती 'किरण', जबलपुर समता की निर्मल गंगा : विभिन्नता हो तो पढ़कर भी बुद्धिमय नहीं होता, मनन चिंतन तो प्रस भव ही है । अध्ययन में अतिरिक्त विकल्प माज के युग में कल्पवृक्ष की भाति विज्ञान के बढ़ते नहीं रह सकते । एकाग्रता से मन-वचन-काय पर नियंत्रण हए चरण भव को सतापकारी तृष्णा के अथाह मागर में अनायास ही हो जाता है। अन्य पदार्थों से ममता की डोर डबा च के है । प्रात मानव व्याकुलता से प्रतीक्षा रत है। टूट जाती है। चेतना, जो अब तक प्राकर्षणो मे बह रही उन उपायों के लिए, जो मानव के उद्वेग को शात कर थी, अपने में लौट पाती है। प्रात्मा का 'स्व' में केन्द्रीमत तृप्ति दे सकें। उसे निश्चय हो गया है कि शारीरिक सुख हो विराम लेना प्रात्मविशुद्धि का कारण है। जैन दर्शन उसे तृप्त करने में सर्वथा असमर्थ है। मानव सामग्री के का केन्द्र प्रात्मा ही है। प्रास्मा का लक्ष्य स्वस्थित होना विस्तृत मरुस्थल में मानमिक अशाति से तप्त राग-द्वेष की है। स्वाध्याय से 'स्व' के प्रति जिज्ञासा बढ़नी है, जो पांच मे चने की भांति भुनता हुआ छटपटा रहा है, प्रात्मा की खोज करके ही शांत होती है एवं पा जाने पर समता के सीकरों के लिए जो तत्काल शाति प्रदान कर अभूतपूर्व तृप्ति मिलती है। सकते है । उसे यह ज्ञात नही कि समता की निर्मल गगा की अजस्र धारा उसी के अंतस में प्रवाहित है। उस पवित्र मोह-ममता के गहन अधकार में भटकता प्राणी तषाहारिणी सरिता का उद्गम वह स्वयं है और वह आत्मिक शांति को विस्मृत कर अपना प्रतिक्षण ह्रास कर पिपासित हो यत्र-तत्र भटक रहा है। यह कैसा प्राश्चर्य रहा है। स्वाध्याय ज्ञान-किरणों के द्वारा पालोक-दान है कि जिसके गर्भ मे प्रनत औषधिया पल रही हों, वही करता है, ताकि व्यक्ति अपनी सामर्थ्य से परिचित हो हिमांचल रुग्ण रहे ? मानव को अपनी विशाल निधि की प्रात्म शक्ति को पूर्णत: विकसित करने की क्षमता प्राप्त खोज करना है। भयंकर दरिद्रता से मुक्ति पाना है तो कर सके। सतर्क हो स्वाध्याय करना होगा, सतत स्वाध्याय । स्वा. ध्याय ही वह सुगम उपाय है जो प्रात्मा के गुप्त प्रबझे भंडार के रहस्यों को खोल कर समस्त प्राधि-व्याधि- स्वाध्याय क्यों ? भोर किसका? साधारणत: स्वा. उपाधि को हरण कर लेता है। इसके प्रभाव से संसार मे ध्याय पढ़ने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अक्षरात्मक ज्ञान होने वाला मानुषगिक फल ऋद्धि-सिद्धिया अनियत्रित या तो प्रत्येक व्यक्ति को करना पावश्यक है। इसके बिना चरणो मे लोटती है। विशद् ग्रंथो का पारायण नही किया जा सकता। विश्व मे अनेक विषय है। किसी भी विषय की गहन अध्ययन के 'स्व' में केन्द्रीभूत हों : बिना धारणा नही होती। यह भी सम्भव नही कि एक स्वाध्याय जीवन का भावश्यक अंग है। इसके बिना व्यक्ति समस्त विषयो का अध्ययन कर पारंगत हो सके। मनुष्य पशु के सदृश है, बल्कि पशु कहकर भी पशु का अपनी-अपनी रुचि के अनुसार ही व्यक्ति विषयो का अपमान करना है। स्वाध्याय करते समय मन की क्रिया प्रध्ययन-मनन करता है। कोई भी कार्य किसी विशेष के अनुरूप वचन व शरीर की क्रिया भी होती है, अर्थात् उद्देश्य को लेकर किया जाता है। सुख-प्राप्ति का उद्देश्य तीनों का समन्वय भी हो जाता है। कदाचित् तीनो मे ससार के समस्त प्राणियो का सदृश है। अनेक प्रकार से
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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