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________________ ११०, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त उन पर ही है, जिन्होंने अब तक श्रम को खरीदने में प्रवीणता का कितना लाभ समाज को दे पाते हैं ? प्रत्येक प्रतिष्ठा और धर्म माना है। प्राणी का विकास दूसरी हजारों परिस्थितियों के कारण महावीर के नाम पर प्रतिष्ठित धर्मग्रंथों में प्रथवा होता है। उन हजारों परिस्थितियों के अनन्त उपकार जिन-शासन मे अपरिग्रह का जो वर्णन मिलता है, वह एक-एक व्यक्ति पर होते है। व्यक्ति कहीं भी रहे-चाहे तत्कालीन समाज-व्यवस्था की परिणति है। उसी को लोकांत मे ही स्थित हो जाये --तब भी लेकर यदि हम चादर बनते रहेगे. तो प्राने वाला युग। उसका उत्तरदायित्व कम नही होता। वहां तक पहुंचाने में इस लीक पर चलने वाले अपरिग्रही विरागियों को क्षमा भी समाज ही सहायक होता है। नही करेगा। प्रतः प्राज प्रावश्यकता इस बात की है कि हमारे परिग्रह यानी पदार्थ की विपुलता। यह सृष्टि मे रहने परिग्रह या अपरिग्रह की मान्यताप्रो पर नये सिरे से वैज्ञाही वाला है। सवाल यह है कि हम अपनी कुशलता और निक परिप्रेक्ष्य मे पुनर्विचार हो। 000 (पृष्ठ १०१ का शेषांश) कवि धनजय हुए थे और स्वयभु (कवि) ने भूवन को कितने विद्वानों का, जिनका नाम ऊपर लिया जा चुका है रजायमान किया था।" इस उल्लेख से प्रतीत होता है अथवा नही भी लिया गया, वाटनगर के इस संस्थान से कि नयनदि ने स्वय इस साहित्यिक तीर्थ की यात्रा की थी प्रत्यक्ष या परोक्ष संबंध रहा, कहा नही जा सकता। भोर उसकी स्तुति में उपरोक्त वाक्य लिखे थे। हमारी वह अपनी उपलब्धियों एवं सक्षमताओं के कारण विद्वानो इस घारणा की पुष्टि भी इस कथन से हो जाती है कि का आकर्षण केन्द्र भी रहा होगा और प्रेरणा स्रोत भी। महाकवि स्वयभु, जो वीरसेन के समकालीन तो थे ही राष्ट्रकूट युग के इस सर्वमहान ज्ञानकेन्द्र एवं विद्यापीठ और उन्ही की भाति राष्ट्रकूट सम्राट् ध्रुव धारावर्ष से की स्मृति भी पाज लुप्त हो गई है, किन्तु इसमें सन्देह सम्मान प्राप्त थे, स्वयं वीरसेन के गृहस्थ शिष्य एवं नही है कि अपने समय में यह अपने समकालीन नालन्दा साहित्यिक कार्य के सहयोगी रहे थे। यह धनञ्जय भी, और विक्रमशील के सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्यापाठों को समर्थ संभब है जि-का अपरनाम पुंडरीक हो, भोजकालीन चुनौती देता होगा । भारत के प्राचीन विश्वविद्यालयों मे धनञ्जय (श्रुतकीति) के पूर्ववर्ती है और वीरसेन के तक्षशिला, विक्रमशील पोर नालन्दा की ही भौति यह ज्येष्ठ समकालीन रहे हो सकते है, क्योकि उनकी नाममाला वाटग्राम विश्वविद्यालय भी परिगणनीय है। Don के उद्धरण वीरसेन ने दिये है। अन्य भी अनेक न जाने ज्योति निकुंज, चारबाग, लखनऊ जैन मत नास्तिक नहीं है। नाप्तिक वह होता है जो पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक तथा कर्मफल को नहीं मानता। । ईश्वर सृष्टिकर्ता है ऐसा जैन नहीं मानते। उनके विचार से यह सष्टि अनन्त है, अनादि है। यह किसी की बनाई हुई नहीं है । अतः इसे कोई बिगाड़ नहीं सकता है। जैन परम्परागत को मनाविकाल से अनवरत और गतिशील मानती है। जगत का अपकर्ष-उत्कर्षमय कालचक्र सतत कम से चलता पा रहा है। इसका न माति है, न अन्त है।
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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