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________________ पंचोपचारी पूजा पं० मिलापचन्द रतनलाल कटारिया, केकड़ी विक्रम सं० ११० में होने वाले श्री मल्लिषेण सूरि ने जाता था। हम देखते हैं कि सोमदेव ने यशस्तिलक मे "रखपणावती कल्प" के तीसरे परिच्छेद में ऐसा कथन पोर पानन्दि ने पपनन्दिपंचविशति में महंतादि को किया है पूजा में सिर्फ अष्टद्रव्यो से पूजा तो लिखी है किन्तु अाह्वान माहानं स्थापनं देव्याः, सन्निधीकरण तथा । स्थापना, सन्निधिकरण, विसर्जन नही लिखा है । यह चीज पूजां विसर्जन प्राहुबंधाः, पचोपचारकम् ॥२५।। हमको प्रथम प्राशाघर के प्रतिष्ठापाठ पोर अभिषेक पाठ पोम ही नमोऽस्तु भगवति ! पद्मावति ! एहि एहि मे मिलती है। पाशाघर ने इतना विचार जरूर रक्या है सवौषट् । कि अहंतादि की पूजा में प्राह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण कुर्यादमुना मत्रणाह्वानमनुष्मरन् देवीम् ॥२६॥ तो लिखा है किन्तु विसर्जन नही लिखा है। हाँ शासन तिष्ठद्वितय ठानद्वय च सयोजयेत् स्थितीकरण । देवो की पूजा में उन्होने विसर्जन लिख दिया है। जैसा सन्निहिता भव शब्द मम वषडिति मन्निधीकरणे ॥२७॥ कि नित्यम होद्योत के इस पद्य से प्रकट हैगन्धादीन ग्रह अण्हेति नम: पूजाविधानके । प्रागाहता देवता यज्ञभागः प्रीता भर्तः पादयोरर्षदानः । स्वस्थानं गच्छ गच्छनि जस्त्रि' स्यात् तद्विसर्जने ॥२७॥ क्रीतां शेषा मस्तकरुद्वहन्त्यः प्रत्यागतु यान्त्वशेष। यथा___ "प्रोम् ह्री नमोऽग्तु भगवति ! पद्मावति ! एहि स्वम् ॥१६॥ एहि मंवौषट्" इति माह्वानम् । इसमे विसजित देवो के लिए "ग्रहंत की शेषाको पर ___ "मोम ही नमोऽस्तु भगवति ! पद्मावति ! तिष्ठ धारण करते हुए" जाने का उल्लेख किया है, जिससे यहा तिष्ठ ठ:ठ." इति स्थापनम् । "मोम ही नमोऽस्तु भगवति ! पद्मावति ! मम शासनदेवों का ही विसर्जन ज्ञात होता है, न कि पचपर. मेष्ठी का। एक बात माशाधर के पूजा-ग्रन्थो में यह भी सन्निहिता भव भव वषट्" इति सन्निधीकरणम् । देखने मे पाती है कि वे शासन देवों की पूजा में तो प्रर्चना "मोम् ह्रीं नमोऽस्तु भगवति ! पद्मावति ! गंघादीन द्रव्यों के अर्पण मे "जलाद्यर्चन गहाण गहाण" या ' इदमय गृह गृह्ण नमः" इति पूजाविधानम् । पाद्यं जलाधं यजभागं च यजामहे प्रतिगृह्यता प्रतिगृह्य"मोम् ह्रीं नमोऽस्तु भगवति ! पद्मावति ! स्वस्थान् ताम्।"इस प्रकार के वाक्य का प्रयोग करते है। ऐसे प्रयोग गच्छ गच्छ ज:जःजः" इति विसर्जनम् । उन्होंने प्रस्तादि की पूजामो मे नहीं किये हैं। वहाँ तो एवं पंचोपचारक्रमः। वे यों लिखते हैदेवी का पाहान, सन्निधिकरण, पूजन और विसर्जन जो किये जाते है उन्हें पंचोपचार कहते है। इसी का दूसरा "प्रोम् ही अहं श्री परमब्रह्मणे इदं जलगन्धादि निर्वपा. नाम पचोपचारी पूजा है। इनका मंत्र पूर्वक जो विधिक्रम मीति स्वाहा ।" है वह ऊपर लिख दिया है। फिर भी इतना तो कहना ही पड़ता है कि महतादि ऐसा प्रतिभासित होता है कि पहिले पंचोपचारी पूजा की पूजा विधि मे माह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण की मंत्र सिद्ध करने के लिए देवतारापन में की जाती थी। परिपाटी चलाने में शायद ये ही मुखिया हों। अपने बनाये महंतादि को पूजा में पंचोपचार का उपयोग नहीं किया प्रतिष्ठा ग्रन्थ की प्रशस्ति में खुद पं. पाशापर लिखते हैं
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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