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________________ अपरिग्रह बाबम-निष्ठा १०॥ कि महावीर जैसा तपस्वी और मनस्वी व्यक्तित्व परा- से प्रतिष्ठा पाता है और त्यागीजन उस संग्रह पर सुख की कोटि का विनम्र और श्रमी ही हो सकता है। ऐसा नीद सोकर मोक्ष के सपने देखते है । व्यक्ति समाज पर हावी नही हो सकता। साधना उनकी परिग्रह की प्रतिष्ठा तोड़ने के लिए समाज मे पौर नितान्त वैयक्तिक रही, किन्तु थी वह समाज-कल्याण के व्यक्ति मे श्रम के प्रति निष्ठा उद्भूत होनी चाहिए। लिए । सामूहिक और सामूहिक साधना की भूमिका तैयार सग्रह के प्रति लगाव उसी में होता है, जो श्रम से भागता किये बिना अकेले व्यक्ति की स्वतन्त्रता या साधना का है। सच्चा श्रमिक वह है जो अपने हाथ-पैरों पर सबमे क्या मूल्य ? पांचो व्रतो का परिणाम समाज में, समान अधिक भरोसा करता है और कल के लिए संग्रह करने के लिए मौर समाज की ओर से ही व्यक्ति के जीवन म की वृत्ति स दूर रहता है। 'कल' क्या होगा, इस चिन्ता प्रतिबिंबित हो सकता है। तभी इन व्रतो में गुणात्मक मे परिग्रह के बीज है और श्रम के प्रति तिरस्कार है। तेजस्विता पा सकती है। बारीकी से देखा जाय तो हर व्यक्ति इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि अब तक हमारे धर्म-सिद्धान्तो का रुख संग्रह और त्याग दो चीजें नही है। यदि व्यक्ति । भी संग्रह को प्रतिष्ठा देने का रहा है। श्रमिक प्रर्थात् अपने को समाज का अग मानता है, तो उसका संग्रह पार्थिक दृष्टि से विपन्न व्यक्ति को निर्धन माना गया, समाज का है और उसका त्याग भी ऐसा बीज-वपन है और इस स्थिति के लिए उसके पूर्व कर्मो को जिम्मेवार जिससे हजार-हजार गुना फसल निकल सकती है। प्रेम माना गया। किसी भी धर्माचार्य या महापुरुष ने यह नही और करुणा की भूमिका मे से ही सामाजिकता विकसित कहा कि गरीबी संग्रह पोर शोषण का परिणाम है। इस होती है । पब तक हमारे यहाँ सग्रह भी व्यक्तिगत रहा धग पर बार्ल मार्क्स ही पहला व्यक्ति हुआ जिसने वैज्ञाऔर त्याग भी व्यक्तिगत रहा.-----अध्यात्म भी व्यक्तिगत निक ढंग से प्रतिपादित किया कि मनुष्य की प्रभावपौर भौतिक उपलब्धि भी व्यक्तिगत । एक प्रादमी धर. ग्रस्तता या गरीबी उसके भाग्य का फल नहीं है। बार, जमीन-जायदाद त्यामकर साधु बन जाता है और उस सारी सम्पत्ति का उपभोग पीछे के उत्तराधिकारी यदि कर्मशीलता हिंसा है, प्रारम्भ मात्र हिंसा है, करते है। साधु अपने वैराग्य मे या त्याग के प्रानन्द मे यानी श्रम करना ही हिंसा है तो फिर अहिंसा को निविय किसी को भागीदार नही बनाता और संग्रह का उपयोग होना ही था। अहिंसा को कर्म-शून्यतापरक व्याख्यान ने करने वाले भी अपनी चीजों को अपने तक सीमित मान अहिंसा को निस्तेज बना दिया है . वह मात्र अभिनय की कर चलते हैं। यह एक ही भमिका है और कहना चाहिए चीज २१ गई है। मजा का विषय रह गई है। कि सामती ढंग से ही दोनो स्थितियों का विकास हुप्रा है, यह पग बात है कि प्राज के श्रमिक मे भी श्रम के किन्तु भाज विश्व की परिस्थितियां भिन्न है। प्रति निष्ठा नही है और वह केवल रोजी-रोटी के लिए परिग्रह को पाप या अधर्म कह देने से अब काम नही श्रम करता है । पत्थर तोड़ने वाला श्रमिक या तो पत्थर चलने वाला है। इस तिजोरी का पैसा उस तिजोरी में ही तोड़ता है या बाल-बच्चो के लिए रोटी कमाता है। रख देने से अपरिग्रह नहीं उदित होता है। यह प्रारम्भ. इससे पागे बढ़कर वह पत्थर तोड़ने को भगवान का विहीनता या अहिमा नहीं है कि अन्य लोग दुगुने सक्रिय मन्दिर बनाना नहीं मानता। जिस दिन श्रमिको में, रहकर महाव्रती नामी किसी विशिष्ट व्यक्ति की शिल्पकार मे यह, दृष्टि प्रा जायेगी कि उसका श्रम ही निष्क्रियता का संवर्धन करते रहें। मन पर से और तन सौन्दर्य का सागर है, उसका श्रम हो समाजरूपी भगवान् पर से सामन्ती अध्यात्म की चादर उतारे बिना अनासक्ति का मन्दिर है, तो उसका रोजी-रोटी का लगाव टूट पूर्वक त्यक्त परिग्रह को अपरिग्रह में रूपान्तरित नही जायेगा, पत्थर पत्थर न रहकर भगवान् का बिब बन किया जा सकता। आज स्थिति यह है कि संग्रहो सग्रह जायेगा। लेकिन ऐसी स्थिति पंदा न करने का दायित्व
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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