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________________ नारी और जीवन-मस्य : अपभ्रंशन साहित्य के संदर्भ में के विरह का वर्णन हिन्दी काव्य का एक प्रधान अंग ही बन उसकी इस प्रवृत्ति के कई उदाहरण प्रपदंश साहित्य में गया। ऋतु-वर्णन तो केवल इसी की बदौलत रह गया।" मिलते है । राजा जयन्धर की एक रानी पृथ्वीदेवी, अपभ्रंश में विरह के प्रसग उठाये गये है और सन्देशरासक दूसरी रानी विशालनेत्रा पर राजा का विशेष प्रेम देखकर तो एक बार कालिदास के मेघदूत, ऋतुसंहार आदि के जिन-दीक्षा को उद्यत हो जाती है। दूसरी पोर अपने समीप ही जा पड़ता है। जहाँ तक नख-शिख' के वर्णन पुत्र के पास जा रही पृथ्वी देवी पर विशालनेत्रा परका प्रश्न है वह अपभ्रश में भी पर्याप्त मिलता है और पुरुष गमन का आरोप लगाती है। अपनी पुत्री की भांति उसमे यदा-कदा मौलिकता भी दीम्व जाती है, किन्तु जीवन- चन्दना की रक्षा करते सेठ वृषभदत्त से कुछ न कहकर मूल्यो को वह कम ही प्रभावित करता है। उसकी सेठानी चन्दना पर घोर अत्याचार करती है। सेठ जिनदत्त की नवोढा अपनी सपत्नी की युवती कन्या सास-बहू सम्बन्ध तिल कमती से प्रबल ईष्य करती है। परिजनों के प्रति सास-बहू के सम्बन्ध अनुमानतः प्राज जैसे ही प्रा- सहज और सौम्य व्यवहार के मध्य नारियों में ईर्ष्या, भ्रंश काल मे भी हो रहे होंगे पर एक स्थान पर सासो जल्दबाजी प्रादि की भी कुछ प्रवृत्तियां दिख जाती है। की बहत क्ट पालोचना की गयी है : 'बिना परीक्षा सेठ जिनदत्त की पत्नी सौतेली पुत्री तिलकमती पर इसकिये कोई काम नहीं करना चाहिए, सामें बहुत बुरी लिए भी अत्याचार करती थी कि उसे विवाहेच्छर होती है, वे महासतियो को भी दोष लगा देती है। जिस मकी अपनी पुत्री तेजमती की अपेक्षा अधिक पसन्द करते प्रकार सकवि की कथा के लिए दुष्ट की मति और थे। ससुराल से निकाल दी गयी पवनंजय की पली कमलिनी के लिए हिमघन, उगी प्रकार अपनी बहनों अंजना सर्वथा निर्दोष होने पर भी अपने माता-पिता द्वारा के लिए दुष्ट मासे स्वभाव से शत्र होती है। लोगो में भी ठकरा दी जाती है। यह प्रसिद्ध है कि सामों और बहुमो का एक दूगरे के प्रति अपभ्रश में जब भी सामाजिक कार्यो, समारोह, वर अनादि निबद्ध है।' उथल-पुथल प्रादि के प्रसग पाये तभी नारी को समान रूप से भाग लेते दिखाया गया है। परदेश, युद्ध प्रादि परिजनों, सौत आदि के मध्य नारी के लिए प्रस्थान करते हुए पति को प्रोत्साहित करना" नारी अपनी सपली या सपत्नियों के प्रति शकालु उसकी धार्मिक प्रवृत्तियो मे सहयोग और मार्गदर्शन", और प्रसहिष्ण कदाचित् प्रादि-काल से रही होगी। तीर्थंकर के समवसरण में पहुचना, तीर्थयात्रा", बन१ शुक्ल : आचार्य रामचन्द्र : जायसी ग्रन्थावली ८. उदय चन्द्र . पूर्वोक्त, पृ० १६, स० २, क० २। (भूमिका), काशी, पृ० १२५.१२६ । ६ स्वयभू : पूर्वोक्त, पृ० ३०७-३०६, स० १६, क. २. अब्दुर रहमाण : सन्देश रासक, पृ० १५०-१५१, द्वि० ४-५ । गाथा ३३-३६ । ११. (क) वीर : उपर्युका, पृ० ११७, स. ६, क. ३ । ३. स्वयंभू : पूर्वोक्स, पृ० ३०७, स. १६, क. ४.५। (ख) स्वय भू : पूर्वोक्त, ख. ४. प. ३६ ४३, स. ५६, ४ पुष्पदन्त : णायकुमारचरिउ, नई दिल्ली, १९७२, क. ३-५। पृ० २१.२३, स० २, क. २३ । ११. वीर : उपर्या ,पृ. ३६.४०, स. २, क. १७१६ । ५. उपर्युक्त, पृ० ४५, स. ३ ० ८। १२. (क) वीर · पूर्वोक्त, पृ. ५६-५८, म. ३, क.१२-१३ ६. पुष्पदन्त : वीरजिणिदचरिउ, नई दिल्ली, १६७४, (ख) विबुह सिरिहर . पूर्वोक्त, पृ. १६५, स. ७, क ५। पृ०७१, स०५, क. ४-५ । (ग) स्वयंभू : पूर्वोक्त, पृ. १५, स० १, क०८। ७. उदयचन्द्र : सुगन्धदशमी कथा, नई दिल्ली, १९६६, (घ) स्वयभ : पूर्वोवत, स. ४, पृ. २७९-२८३, स. ७२, पृ० १८, स० २, क. २। क.५-७।
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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