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________________ महात्रमावाबावक शिरोमणि के पालन करने में महत्वपूर्ण अनूठे कार्य किए हैं। स्त्रियों तीर्थ क्षेत्र की मुग्ण बेदी के पास इतमा स्थान नहीं था कि की तेजस्वी शक्ति से ही समाज सच्चे पर्षों में उत्कर्ष को स-पांच महाज सुविधापूर्वक बैठ सकें मोर परिकमा भली प्राप्त होकर सर्वागीण उन्नति को प्राप्त हो सकती है। प्रकार लगा सकें। जब इस विषय की पोर साहजो का श्रीमती रमारानीजी उन्हीं वीर महिलाओं के पदचिह्नो ध्यान प्राकर्षित किया गया तो उन्होंने एक लाख रुपये पर चलीं, जिन्होंने सस्कृति उत्थान के कार्य मे प्रभाव से स्वयं अधिक रुपये लगाकर मनोशतम वेदी पोर नये शाली कार्य किया, जिससे जनता में अपने कर्तव्य के प्रति सिरे से भवन वशिखर बनवाकर तीर्थ का उद्धारकर दिया। श्रद्धा बलवती हुई और उनका सबसे बड़ा कार्य यह हुमा इसी प्रकार न मालम कितने तीयों का जीर्णोद्वार उनके कि वे साहजी को दिल खोलकर उदारता के साथ धर्म, द्वारा हपा । वे सच्चे पथों में तीर्थभक्त शिरोमणि ॥ संस्कृति, साहित्य, जिनवाणी, तीर्थ और समाज निर्माण के इसी प्रकार जिनवाणी उद्धार के लिए उन्होंने भार. कार्य में प्रोत्साहन देती रही जिससे जैन समाज के जीवन तीय ज्ञानपीठ की स्थापना की जिसके द्वारा सम्कृत, मे एक नई चेतना जागृत हुई और जिसका सुमधुर फल प्राकृत, हिन्दी पौर दक्षिण की भाषामों के प्रथ सर्वात निकला। सुन्दर रूप में नई सज्जा के साथ इस प्रकार प्रकाशित साहजी ने व्यापार के कार्य को खूब बढ़ाया। अनेक कराये जो पहले कभी नहीं हुए थे। फैक्टरियों, व्यापारिक सस्थानो, विविध उद्योगो को इतने जो ग्रथ प्रकाशित हए वे प्राभ्यन्तर विषय की दृष्टि कंचे दर्जे पर ले जाना उनकी प्रतिभा का उत्कृष्ट नमना से और बाह्य सज्जा की दृष्टि से नयनाभिराम, नाय था। जबकि माज के समय मे मालिक मजदूरों के संघर्ष और अद्वितीय थे जिनकी सभी सरस्वती पाद सेजियों निरन्तर चलते रहते है, हजारों कामगारों से काम लेना, ने मुक्त कंठ से प्रशसा की और दूसरो के लिए उनका उन्हें सतुष्ट करना और अपने वाणिज्य का सर्वतोमुखी अनुकरण करने की प्रेरणा दी। इसी सस्था के द्वारा एक विकास करना उनका व्यक्तिगत चमत्कार ही था। ऐमा महान कार्य हुपा जिससे देश की चौदह भाषामो के सारे देश में जितने तीर्थ है, उनमें सबसे अधिक मध्य सर्वोत्तम प्रथकार का सम्मान किया गया भोर प्रति वर्ष प्रदेश में जैन तीर्थ हैं। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के वाग्देवी सरस्वती की मूर्ति सहित एक लाख रुपये का सव. जिस इलाके को बन्देलखण्ड कहते है। प्राचीन काल मे वहां श्रेष्ठ पुरस्कार प्रदान किया गया, जिसके फलस्वरूप भनेक सिंघई, सवाई सिंघई और श्रीमंत धनिक हुए जिन्होंने सभी भाषामों के साहित्यकार विविध भापारूपो मनियो अपनी चंचला लक्ष्मी का सही उपयोग जिनेन्द्रदेव के को एक माला मे गूथने और एक-दूसरे के निकट भाकर मदिरों के निर्माण में लगाया। बहुत समय तक वे धर्म प्रास्मीयता प्रकट करने लगे। इससे भारतीय संस्कृति का पौर संस्कृति के केन्द्र बने रहे। जब गांवों की मोर से गौरव बढ़ा और साहू जी को दानशीलता, दिग्दिगान्त शहरों की मोर ग्रामीण जनता का रुख हमा तो वे तीर्थ व्यापिनी हुई, यद्यपि उन्हें स्वयं पानी प्रशमा सुनने का उपेक्षित हो गए। फलस्वरूप उनका सौन्दयं मलिन हो रचमात्र भी चाव न था । उन्हे काय में विश्वास था। गया । धीरे-धीरे वे जीर्ण होकर अपने अस्तित्व को ही समाज निर्माण के कार्य में उनकी बडी रुचि थी। खतरे में डालने लगे। उनका उद्यम करना सामान्य बात दिगम्बर जैन समाज में जो अनेक संस्थाये अपने-अपने क्षेत्र नही थी । साहूजी ने उनके दर्शन किए। उनके मन मे टीस मे कार्य कर रही थी उनमे से कोई भी सस्था समस्त न हई और उनके उद्धार का सकल्प उनके मन मे जागत हमा। समाज का प्रतिनिधित्व करने का दावा नही कर सकती अपने मुख्य इन्जीनियर को भिजवाकर उन तीर्थों का थी। ऐसी परिस्थिति में भ. महावीर निर्वाण महोत्सव सर्वे किया गया और नये सिरे से एक सुयोग्य महानुभाव कैसे सफल हो, इस बात को ध्यान में रखकर दिगम्बर जैन को देख-रेख मे लाखों रुपये व्यय करके उन तीर्थों का भ. महावीर निर्वाण समिति बनाई गई जिसके माध्यम से जीर्णोद्धार किया गया। इसी प्रकार प्रहिछत्र पार्श्वनाथ वीर निर्वाण महोत्सव पौर धर्मचक्र प्रवर्तन का अत्यन्त
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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