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________________ ७३ बा जिनदास और उनकी हिन्दी साहित्य को देन मठावीस मूलगुण रास, ४६. बारह व्रत गीत ४७. लोगों ने उनकी प्रतिभा को पहिचाना। उनके समय में चौदह गुण स्थान रास, ४८. प्रतिमा ग्यारह का रास। ही उनके ग्रन्थों की प्रतिलिपियों की यत्र-तत्र स्वाध्याय उपदेशपरक काय-४६ निजमनि संबोधन, ५०.जीवडा हेतु मांग होने लगी। उनको काव्य-रचना जन-जीवन के गीत, ५१. चनडी गीता, ५२. धर्मतरु गीत, ५३. निकट थी। उपलब्ध पांडलिपियों की प्रशस्तियां यह तथ्य शरीर सकल गीत । उजागर करती हैं कि कवि के लोकवाणी में प्रथमानयोग स्ततिपरक काव्य-५४. मादिनाथ स्तवन, ५५. तीन काव्यों के प्रणयन में भत प्रेरक शिष्यगण, श्रावक-श्रावि. चौबसी विनती, ५६. ज्येष्ठ जिनवर लहान, ५७. काए एवं विद्वान थे। कालान्तर मे भी उन काव्यों की जिनवर पूजा होली, ५८. पच परमेष्ठी गुण वर्णन, समय-समय पर प्रतिलिपियाकी गई और भिन्न-भिन्न ५६ गिरिनारि धवल, ६०. गुरु जयमाल, ६१. जिन जिनालयो में उन्हे स्वाध्यायार्थ विराजमान किया गया। वाणी गुणमाला, ६२. पूजा गीत, ६३. गौरी भास, इस स्वनामधन्य महाकवि ने अपनी ६० से भी ६४. मिथ्यादुक्कड बीनती। अधिक कृतियों से हिन्दी वाङ्मय को समृद्ध किया । हिन्दी स्फुट काव्य---६५. चौरासी न्याति माला, ६६ बंक चल साहित्य के प्रादिकाल मे ४० से भी अधिक रास-काव्यों का स, ६७. धर्मपरीक्षा रास, ६८. कर्मविपाकन द्वादशा कथा, ६६. प्रेमा चक्रवर्ती । प्रणयन ब्रह्म जिनदास की अपनी देन है। उनका प्रत्येक काव्य-रूप की दृष्टि से ये रचनाएं प्रबन्ध काव्य के। राम-काव्य प्रबन्ध काव्य की सीमा को पहंचता महाकाव्य, और खण्ड काव्य तथा गीति काव्य के अंतर्गत है। मं०१५०८ में रचित प्रकेला 'राम-रामो'-राजस्थानी भी विभक्त की जा सकती हैं। पुराण एवं चरित काव्य भाषा की प्रथम जैन रामायण जिसकाउल्लेख हिन्दी के महाकाव्य की सीमा में परिगणनीय है तो प्राख्यानपरक फादर कामिल तथा बुल्के ने 'रामकथा परम्परा' से किया है। काव्य खण्डकाव्य की मीमा को पहुंचते है। शेष रचनाए जो गो० तुलसीदास के रामचरित मानस से सवा-सौ वर्ष मक्तक या प्रगीतिकाव्य को विधा में समाविष्ट हो सकती पूर्व का है, किसी भी दृष्टि से मानस से कम महत्व नही है । इन विशाल रचनाओ के धनी महाकवि ब्रह्म जिनदास रखता। यह राम-रासो लगभग ६५०० शब्द प्रमाण है। इसमे बहमुखी प्रतिभासम्पन्न थे। जैन सिद्धान्त के गहन अध्य. यन के साथ-माथ भक्तिपरक साहित्य के निर्माण मे उनकी कोई अत्युक्ति नही कि समूचे हिन्दी साहित्य के इतिहास मे ब्रह्म जिनवास अपनी सानी नही रखते। विशिष्ट रुचि थी। साहित्य की विविध विधानों-पुराण, काव्य, चरित, कथा, स्तवन, पूजा प्रादि के रूप मे मा-भारती अपनी उत्कट प्रात्म-साधना के साथ गुरु-भक्ति, के भण्डार को पूर्ण करने मे इस महाकवि ने कोई कसर नही ताथाटन, नियामत स्वाध्याय, प्रतिष्ठाम्रा का संचालन छोड़ी। इन सबके माध्यम से प्रात्मोत्थान कवि का एक मात्र पार फिर उच्च और फिर उच्चकोटि का विशाल साहित्य-सजन, ये सब प्रतिपाद्य लक्ष्य था। कवि की रचनायें किसी एक स्थान पर कार्य ब्रह्म जिनदास जैसे बहुमखी व्यक्तित्व की ही मनपम उपलब्ध नहीं होती। ईडर, बासवाड़ा, मागवाड़ा, गलिया- देन है । वे अप्रतिम प्रतिभाओ के धनी थे, जिनमे एक कोट, डुगरपुर उदयपुर और ऋषभदेव प्रादि गुजरात एवं राज. साथ अद्भुत विद्वत्ता, उच्च कोटि के साधुत्व, अपने पाराध्य स्थान के सीमावर्ती प्रदेशो में कवि के मुख्यत. बिहार एव साधना के प्रति प्रगाढ भक्ति के साथ-साथ अनुपम कवित्वशक्ति मोर स्थल रहे। प्रत. इन प्रदेशो के जैन शास्त्र भण्डारोंमे कवि अविचलित प्रात्म-साधना के सभी गुण विद्यमान हैं । का साहित्य विशेष रूप से उपलब्ध होता है । वैसे जयपूर, इसीलिए उनका साहित्य प्राणि-मात्र के इह लौकिक एवं अजमेर, प्रतापगढ, दिल्ली प्रादि स्थानों के जन शास्त्रा. पारलौकिक जीवन का अभ्युदयकारक होने से पूर्णत: सत्य गारो में भी उन्क साहित्य की अने की प्रतिया मिल जाती शिव पोर सुन्दर से प्रोत-प्रोत है। वस्तुतः ब्रह्म जिनदास है । इसमे कवि की प्रसिदि एवं उसके साहित्य की लोक. की हिन्दी साहित्य को उल्लेखनीय देन है। वे अपने युग के प्रियता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। प्रतिनिधि कवि है। भक्तिकालीन सत साहित्य में वे सर्वोपरि ब्रह्म जिनदास उन विरले सौभाग्यशाली सन्त महा गणनीय हैं । भाव, भाषा, वस्तु-विधान प्रादि सभी दृष्टियों कवियों में थे, जिन्हें अपने समय में ही प्रसिद्धि मिल जाती से उनका कान्व-सजन उल्लेखनीय है । हिन्दी वाङ्मय की है। उन्होंने अपने काव्यों की रचना के लिए अपने समय प्रतुलनीय सेवा की दृष्टि से हिन्दी साहित्य-संसार सदा की लोक प्रचलित हिन्दी-भाषा को माध्यम चुना। इससे सर्वदा महाकवि ब्रह्म जिनदास का कृतज्ञ रहेगा। जन-सामान्य को बौद्धिक खुराक मिली। सम-सामयिक राजकीय संस्कृत महाविद्यालय, मनोहरपुर (जयपुर)
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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