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________________ घमण संस्कृति की प्राचीनता : पुरातत्त्व और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में मार्यों का शत्रु कहा है।" को बतलाती है। दैनिक जीव र मे भी वे लोग प्रगति के पथ पर थे। मथग म्यूजियम मे दूसरी शती की कायोत्सर्ग मे उनके पावाम, ग्राम और नगर व्यवस्थित थे और वे हाथी स्थित ऋषभदेव जिन की एक मूर्ति है। इस मूर्ति की घोड़ो की सवारी भी करते थे। उनके पास आवागमन के शैली सिन्धु से प्राप्त मोहरों पर अकित खडी हुई देव साधन भी थे। यहा तक कि उनमे भक्ति और पुनर्जन्म मूर्तियो की शैली से बिल्कुल मिलती है। के विचारों में विश्वास था । मर जान मार्शल के अनुसार, मोहनजोदडो से प्राप्त जैन संस्कृति पुरातत्त्व परिपेक्ष्य में कुछ मूर्तिया योगियों की मूर्तियां प्रतीत होती है। इन मिन्धु घाटी के उत्खनन में जिस संस्कृति और मूर्तियों में से एक, योगामन स्थित त्रिमन्व योगी की प्रतिम सभ्यता का रूप हमारे सामने पाया है वह निश्चित ही विशेषतः उल्लेखनीय है। र मति के id : प्राग्वैदिक कालीन है । मूर्ति पूजा प्रादि कुछ ऐसे तथ्य है व्याघ्र, महिष, मग प्रादि पशु स्थित है। कुछ विद्वानो जि-से यह कहा जा सकता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के मतानुसार यह पशुपति शिव की मूर्ति है।" अन्य वैदिक विरोधी सम्पना थी। वह उपर्युक्त द्रविड़ अथवा विद्वानो के अनुमार यह मूर्ति किसी पहने हुए योगी विद्याधर जाति की सभ्यता से सम्बद्ध रही होगी। यह की मूर्ति है।० इम त्रिमख मूर्ति के अवलोकन से अहंत जाति ऋषभ (बल) को पूज्य मानती थी, जिसे कालानर अतिशयों मे यभिज्ञ कोई भी विद्वान यह निष्कर्ष निकाल मे ऋषभदेव तीर्थकर के चिह्न के रूप में स्वीकार किया सकता है कि यह मावशरण स्पिन चतुर्मम तीर्थर का गया है।" ही कोई शिल्प चित्रण है जिसका एक मख उसकी बनावट श्री रामप्रमाद चन्दा ने अपने एक लेग मे लिखा है के कारण प्रदश्य हो गया है। अस्तु पार्यों के प्रागमन मे कि मोहन जोदड़ो से प्राप्त एक ला पाषाण की मूर्ति, पूर्व यहाँ एक समुन्नत मंस्कृति एवं सभ्यता विद्यमान थी जिसे पुजारी की मूर्ति समझ लिया गया है, मुझे एक योगी जो महिमा, मत्य एवं त्याग पर ग्राघारिन थी। को मुर्ति प्रतीत होती है। वह मुझे इस निष्कर्ष पर इस प्रकार, पुरातत्व की दृष्टि से भी धगण संस्कृति पहचने के लिए प्रेरित करती है कि पिन्धु घाटी म उम की प्राचीनता मिद्ध होती जा रही है। भारतीय पुरातत्व समय योगाभ्यास होता था और योगी की मुद्रा में मूतिया का इतिहास मोहन जोदड़ो एवं हडप्पा से प्रारम्भ होता पूजी जाती थी। मोहन जोदड़ो और हडप्पा से प्राप्त है। पद्यपि इन स्थानों में प्राप्त मुद्राग्री की लिपि-मिन्धु मोहरें, जिन पर मनुष्य रूप में देवो की प्राकृति अकित है, लिपि का प्रामाणिक वाचन नहीं हो सका है और इसी मेरे इस निष्कर्ष को और भी पुष्ट करती है। कारण सिन्धु-मभ्यता के निर्माताग्रो की जाति अथवा सिन्धुघाटी से प्राप्त मोहरो पर बैठी अवस्था में नवश के सम्बन्ध मे निर्विवाद रूप से कहना सम्भव नही, अंकित मूर्तियां ही योग की मुद्रा में नही है, किन्तु खड़ी तथापि सिन्धु घाटी के अवशेषों में उपलब्ध कतिपय प्रतीको प्रवस्था में अकित मूर्तियां भी योग की कायोत्मग मुद्रा को थपण संस्कृति से सम्बद्ध माना जा सकता है। १४ ऋग्वेद १।२३।१७४१२.३ १८.५० कैलाशचन्द्र शास्त्री ना लेख "श्रमण परम्परा को १५. Mohan Jadro and the Indus Civilization प्राचीनता", अनेकान्न वष २८, कि.० १, पृ ११३-११४ (1931) Vol 1 PP 93.95. PE Mohan Jo-dro and the Indus Civilization १६. Ancient India (An Ancient History of (1931) Vol-1 pp. 42.3. India, Part-I). २०. Ahinsa in Indian Culture, Dr. Nathmal १७. देखिए प्राचीन परम्परा और इतिवृत्त : लेखक भाग- Tantia. चन्द्र जैन (भास्कर)-- महावीर जयन्ती स्मारिका, २१. मुनि श्री नगराज जी : बीर (श्रमण अक), वीर १६७४, पृ० २.१४ । निर्वाण स० २४६०, पृ० ४६ ।
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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