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________________ ८२, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त जहाजों द्वारा समूद्री भागो से लघु एशिया तथा उत्तर- मन्त्र २।६३७ मे इन्द्र को 'पुरन्दर' और कृष्ण योनिदासों पूर्वी अफ्रीका के देशो के साथ व्यापार न ते थे। की सेनामो को नष्ट करने वाला कहा गया है। मन्त्र डा. कीथ ने यपनी पुस्तक में लिखा कि "ऋग्वेद ११४८ मे 'गृह' नामक अनार्य राजा के एक सौ पुत्रो को मे जिस धर्म का उल्लेख है वह पार्यों का नही किन्तु भारत 'ऋजिश्ला' द्वारा भेदन करने का वर्णन तब पाया है जब के आदिवासियों का अनुमानन द्राविड़ों का है।" ये स्पष्ट कि कृष्णवर्ण वान दासो' पर उसने चढ़ाई की थी। रूप से भारत के प्राचीन निवासी है। यहा के निवासियो मे ऋग्वेद में अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है कि इनकी प्रधानता है। पर्वत निवामी 'दास' के द्वारा सेनापति शम्बर के पुरो डा. रेगोजिन (वैदिक इण्डिया), मार्टिनर व्हीलर और दुर्गों का ध्वंम किया गया, जिनकी संख्या ६० (१॥ (एनसियेन्ट इण्डिया), मिलवर्ट (स्टेट रम्युर), डा० पी० १३०७), ६६ (२।१६।६) और १०० (२११४१६) एल. भार्गव (इण्डिया इन वैदिक एज), राहुल साकृत्यायन कही गयी है। (ऋग्वैदिक भार्य), डा० सतीशचन्द्र काला (सिन्धु ऋग्वेद मे ही एक स्थान पर इन्द्र के लिए की गयी सभ्यता), कामरेड एम० ए० डागे (ग्रादि साम्यवाद से प्रार्यों की स्तुति मे परिस्थितियो को संक्षेप में इस प्रकार दासता तक) और डा० एस० के० चाटा (भारत में कहा गया है कि "ह सब ओर मे 'दस्यु' घेरे हुए हैं, वे आर्य और अनार्य) आदि विद्वानो ने दास और दस्यु आदि यज्ञ कर्म नहीं करने देते (अकर्मन्) हैं। न किसी को को भारत का मूल निवासी माना है। ये लोग वैदिक मानते है (अमन्तु)। उनके व्रत हमसे भिन्न है (अन्यमार्यों के प्रागमन के समय मिन्धु की उपत्यकानों, सहायक बत) । वे मनुष्य जमा व्यवहार नहीं करते (प्रमानुषः)। नदियों की धाटियो में निवाम करते थे। हे शनाशन ! तू उनका वध कर और दासो का नाश प्रार्यों के प्रागमन से पूर्व यहा एक समन्नत सस्कृति कर ।' महाभारत के अनुसार भारत में असुर राजाम्रो और सभ्यता विद्यमान थी। वह सस्कृति अहिसा, सत्य, को एक लम्बी परम्परा रही है। प्रोर वे सभी राजागण त्याग और अध्यात्म पर प्राधारित थी।' शक्तिशाली होने व्रत पारायण, बहुश्रुत और लोकेश्वर थे। के कारण वैदिक प्रार्यों को उनसे अत्यधिक क्षति उठानी विष्णु पुराण के अनुसार, असुर लोग पाहंत धर्म के पड़ी। वैदिक साहित्य मे देव और दानवो का जो मानने वाले थे। उनको मायामोह नामक किसी व्यक्ति युद्ध वर्णन पाया है. हमारी दृष्टि से यह युद्ध असुर और विशेष ने ग्राहंत धर्म में दीक्षित किया था। वे ऋग्वेद, वैदिक आय का है। यह मघर्ष ३०० वर्षों तक चलता यजर्वेद और सामवेद में विश्वास नही रखते थे। वे यज्ञ और पशुबलि में भी विश्वास नहीं रखते थे।" अहिंसा ऋग्वेद के मन्त्रो मे भी पार्यों प्रौर अनार्यों (मूल धर्म में उनका पूर्ण विश्वास था।" वे श्राद्ध और कर्मनिवासियो) का सघर्ष प्रगट होता है। मन्त्र १११-४१७-८ काण्ड का विरोध करते थे।" मायामोह ने अनेकान्तवाद में पृथ्वी को 'दास' लोगो की श्मशान-भूमि कहा गया है। का भी निरूपण किया था . ऋग्वेद में असुरों को वैदिक १ The Religion and rhilosophy of Veda and७. महाभारत, शान्तिपर्व २२७।५।६. Upnishada, pp 9-10. ८. महतेत महाधर्म मायामोहन ते यतः । २ The religion of Ahinsa : by Prof. A. प्रोक्तास्तत्राश्रिता धर्ममाहंतास्तेन ते भवन् । Chakaravaru, p. 17. -विष्णुपुराण ३।१८।१२ ३. महाभारत, शान्तिपर्व, २२७११३ ६. विष्णपुराण ३.१८।१४ ४. अथ देवासुरं युद्धमभूत वर्षशत त्रयम् । १०. विष्णपुराण ३।१८।२७ --मत्स्यपुराण २४॥३७ ११. विष्णुपुराण ३३१८२५ ५. ऋग्वंद, १२२।८ १२. विष्णुपुराण ३।१८।२८-२९ ६. महाभारत, शान्तिपर्व २२७१४९५४ १३. विष्णुपुराण ३.१८१८-११
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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