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________________ पहिसा : विषधर्म हुई थी। धर्म का यश-नाद गुंजरित करते हुए श्रमण मनी- जिससे लोक-जीवन समुन्नत बना और मस्त में श्रमण-वत्ति षियों ने 'सर्वोदयं तीर्थमिदं तव' यह वाक्य धर्म के राज- धारण करते हए पारमार्थिक श्रम-मार्ग की प्रतिष्ठा की। मार्ग पर संकेत-शिला के रूप में उत्कीर्ण कर दिया है। यह श्रमणत्व भी श्रम के महत्व को ही व्यक्त करता है। वह मंगलमय धर्म पुनः विश्व में सर्वोदय तीर्थ के रूप में उपलब्धियों के लिए श्रम करना प्रावश्यक है। मनि पहचाना जाए, इसमें श्रावकों, श्यागियों और प्रशेष धर्मानु- सम्यक् श्रम करते हैं, अतः श्रमण संज्ञा से विभूषित होते रागियों को मन, वचन और कर्म से सहयोग करना है। बादलों से प्राच्छन्न सूर्य का प्रकाश पध्वी पर नहीं चाहिए । एक प्रदम्य साहस लेकर, निष्ठा पोर संकल्प. प्राता। जो मनुष्य होकर इसी भव में साध्य उत्तम फलों पूर्वक निर्वर भाव द्वारा तप, त्याग, संयम, अपरिग्रह, शौच, के लिए अपनी भजाएं ऊपर नहीं उठाता, उसे उनसे वंचित पार्जव मारि उत्तम गुणों को राष्ट्र के वातावरण में अपने रहना होगा । तप मनुष्य को सभी क्षेत्रों में समुन्नति देता विशुख माचरण से संक्रमित करने वाला जैन, भगवान महा- है और उसे मनुज बनाता है, परन्तु तप से रहित को पतन वीर का सच्चा संदेश वाहक है । श्रावक और त्यागी, मुनि का मार्ग देखना पड़ता है । 'तप' का विलोम शब्द 'पत' है पौर प्राचार्य तथा समाज के शास्त्र धुरन्धर विद्वान इस जिसका प्रथं पतन है। अपने परिश्रम का परिणाम गुंजा पोर एक मन, एक प्राण से चेष्टावान होंगे तो यह दयामय । और मणि दोनों में यदि मिल सकता है तो कौन बुद्धिमान धर्म विश्वमानव की झोली को शान्ति, अहिंसा, निवर, मणि छोड़कर गुंजा ग्रहण करना चाहेगा? अपरिग्रह, शील प्रादि रत्नराशि से भर देगा। शरीर से मनुष्य होना अलग बात है और पाचरण भारत धर्मभूमि है। अनादि काल से यहां के धर्मकृषक अपने चरित्र के खेत मे धर्म के बीज बोते प्राये हैं। से मनुष्य होना मलग बाप्त है। माज प्रायः से शरीर मनुष्य मनु भारतीयो के चतुर्विध पुरुषार्थ में प्रथम पुरुषार्थ धर्म है। तो अति संख्या में हैं, इतने कि सरकार को उनके उदरपहिमा उसका प्रमुख स्तम्भ है। कहना होगा कि एक पूरण के लिए विदेशों से अन्न-याचना करनी पड़ती है, महिंसा में ही अन्य सारे धर्म समाए हए है। सारे भारत मे परन्तु उनमें माचारवान् मनुष्य बहुत अल्प संख्या में हैं। पुरातन धर्म स्तम्भ इसी धर्म के कीर्तिस्तम्भ के समान जब पाचारवान् अधिक होंगे, तब राष्ट्र सर्वतोमुखी उन्नति खड़े हुए धर्म का सन्देश सुना रहे है । साम्राज्य प्राये और करेगा । गणपूरकों ने कभी विजय प्राप्त नहीं की। गये, सम्राट बने और बिगड़े, पर कोई अमरत्व प्राप्त न कर अाज विश्वत्राण के लिए वषमदेव का उपदेश सर्वाधिक सका; किन्तु धर्म-स्तम्भों पर उत्कीर्ण ये धर्म-लेख अब सशक्त है। वीतराग परमदेव को अपना मार्गदर्शक स्वीकातक खड़े है और उनमे अभिहित धर्म सदा रहेगा। जो । जा रने से युद्ध, हिंसा, भय, सीमोल्लंघन, परपीड़न इत्यादि प्रात्मा का धर्म है, वह प्रात्मा की तरह अमर है । विश्व को संत्रस्त करने वाली प्राकूलतामों का प्रशमन देवानप्रिय प्रशोक के गिरनार अभिलेख से प्राप्त यह यह सहज हो जाएगा। भगवान महावीर का लगभग ढाई 'प्रविहिसा' धर्म-सूत्र परस्पर, एक-दूसरे के सपीड़न को जार वर्ष पराना वह स्वर, जिसका समाधोष उन्होने परास्त करने वाला है। यह परिभाषा उस धर्म के लिए विश्वमानव के लिए किया था, भाज भी उतना ही सिद्ध हो सकती है, जिसमे पर-पीड़न को अधर्म माना गया प्राणवन्त है, जितना उनके अपने समय में था। वह है। जैन धर्म ही वह धर्म है जिसमे मन से भी परद्रोह- समाधोष है मिती मे सव्य मृदेसु'-मैं सम्पूर्ण विश्व चिन्तन-पराङ्मुखता का विधान है। का मित्र हूं, मेरा कोई वरी नही है । यह घोषणा प्रजापति ऋषभदेव ने इसी धर्म की प्रतिष्ठा लोक पनः जन-जन के हृदय-पटल पर उत्कीर्ण करने योग्य में स्थापित करते हुए इसके लौकिक तथा पात्मिक दो है। स्मरण रखिए कि यह वीर शासन की वीर वाणी मार्ग- "कृषि करो या ऋषि बनो"-निर्धारित किये। है, महावीर का सिंहनाद है, परन्तु नितान्त उत्पीड़न-रहित प्रथम उन्होने छह प्रकार की विद्याम्रो का प्रसार किया तथा विश्व को शान्ति प्रदान करने वाला। 000
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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