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________________ ३६, वर्ष ३१, कि० ३-४ अनेकान्त को भी उपलब्ध हई है, लेकिन किस काम की वह जो दे और फिर अपरिचित व्यक्ति के विचारों से अपनी सह कर्तव्य पूर्ति का साधन बनकर मात्र ईर्ष्या एवं दिखावे मति व्यक्त कर प्रेरणा भी दे। तक ही सीमित रह जाये। एक बात और जिसको मैं विकास की दष्टि से महत्वपूर्ण __ मानव जीवन में ऐसे संयोग भी बहुत बिरले मिलते हैं समझता हूं बुराई के प्रतिकार एवं प्रच्छाई के ग्रहण जहाँ लक्ष्मी के साथ भगवती सरस्वती का अपूर्व समागम हेतु खुले दिल और दिमाग की है। जब दिल और दिमाग एवं संगति हो । पश्चिम लक्ष्मी का दास बना पथभ्रष्ट हो की खिडकियां बन्द हो जाती है तो व्यक्तित्व का विकास रहा है जबकि पूर्व सरस्वती को भूलकर लक्ष्मीदास बनने रुक जाता है। इससे व्यक्ति प्राग्रही एव रूढ हो जाता है। की होड़ में सब कुछ छोड़ रहा है। ऐसे माहौल मे इन धार्मिक एवं मुक्त होने की बात तो बहुत दूर की है, स्व. दोनों का सतुलित समन्वय करने का संयोग प्राप्त होना श्री साहजी सदैव सर्वांगीण विकास एवं नित न्तन विचार विस्मयकारी ही कहा जायेगा। स्व० श्री साहूजी के अन्त. ग्रहण करने में विश्वास एव प्रयत्नशील रहते थे। वे प्रनास्थल में दोनों देवियां विराजमान थी और किन्तु उनके ग्रही थे। सहज किन्तु तकधारित विवेक बुद्धि से जो भी मध्य कोई बर या प्रतिस्पर्धा नहीं थी। सामान्य लक्ष्मी उन्हें सत्य प्रतीत होता था, बिना सयोगी परिणामो की पति के समान न तो वे अहंकारी, जिद्दी या सकुचित परवाह किए, उसे स्वीकार लेते थे, और समर्पित भाव दष्टि के ही थे पोर न सरस्वती के उपासक के रूप मे से उसका अनुकरण भी करते थे। लौकिक व्यवहार शून्य या पलायनवादी वृत्ति के ही । वे जीवन पर्यन्त वह धर्म एवं सस्कृति के व्यवहार पक्ष तो बेजोड़ गतिवान कर्मयोगी थे जो जीवन भर प्रादर्शों के पोषण में सजग रहे। मतो के पूजक एवं विद्वानों के एवं कला-संस्कृति की रक्षा करते रहे । मम्मान तथा प्राश्रयदाता रहे। कला, संस्कृति एवं साहित्य उनकी समदृष्टि थी। क्या छोटा और क्या बड़ा, प्रादि की रक्षा, सुरक्षा, प्रकाशन एवं उद्धार में उन्होने सबके प्रति उनके हृदय में सम्मान था । अपने व्यस्त कार्य- निष्काम भाव से अपना वैभव समर्पित कर दिया। कही क्रमों के मध्य भी वे पत्रोत्तर देने मे नही चकते थे । समाज कुछ कमी नहीं रखी। किन्तु जैसे ही जीवन के उत्तरार्ध का पंसा रथ, गजरथ, मन्दिर एवं धर्मशालानों जैसे प्रचल में उनकी दृष्टि प्रात्मा के वैभव की पोर ग्राकर्पित की मनुत्पादक कार्यों में प्रायः व्यय होता है। मानव सेवा के गई या हुई, उन्होने तत्काल बिना झिझक के अत्यन्त कार्यों में उसका उपयोग नही होता। अतः मैंने भगवान साहसी स्वरो मे उ स्वीकार कर ग्रहण कर लिया। यह महावीर निर्वाणोत्सव के काल में साहूजी को पत्र दिनाक वह स्थिति होती है जहा व्यक्ति अपनी पिछ नी मान्यता ८-११-७४ द्वारा सुझाव दिया कि इस अवसर पर एवं प्राचरण को, भले ही वह प्रत्यक्ष मे कितना ही प्रहितगम्भीर रोगों की चिकित्सा हेतु अद्यावत साज-सज्जायुक्त कर क्यों न हो, छोड़ने का साहस नहीं कर पाता और चिकित्सालय मिशनरी भावना से खोले जावें तो अच्छा एकांगी पक्ष पोषण करता रहता है। साहजी को यह है। साहजी ने पत्रोत्तर बिना विलम्ब के दिनांक परिणति उनको जिन्दादिली एव खिलाडी भावना का ५.१२-७४ को भेजा और लिखा-'मापने जो लिखा' सत्य परिचय देती है। यही कारण है कि जीवन पर्य। उन्होंने है। दान की जो शैली समाज में है वह धीरे-धीरे ही सार-तत्व को बटोरा, ग्रहण किया और अन्त मे उस बिन्दु बदल सकती है और बहुत बदली भी है। प्राशा है प्राप को पा लिया जिसका मिलना अत्यन्त दुर्लभ होता है। जैसे सज्जनो के प्रयत्नों से और भी विशेष बदलेगी।" खड-खड एव नय पक्षों में विभक्त जैन समाज के उनके पत्र को पाकर मैं स्तब्य-सा रह गया । साहूजी मेरे अस्तित्व पर अनेक प्रश्न चिह्न लगे थे । साहूजी ने इसके विचारों से सहमत होगे और मझे पत्र का उत्तर मिलेगा, दर्द को अनुभव किया। भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव इसको मैंने कल्पना भी नहीं की थी। प्राज के भौतिक. के काल में इस दर्द की वेदना को कम करने का अवसर वादी युग में किस उद्योगपति के पास समय है जो पत्रोत्तर (शेष पृष्ठ ३८ पर)
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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