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________________ सरस्वती के पुजारी श्री बती रूपवतो 'किरण', जउलपुर सरस्वती का एकनिष्ठ अनन्य पुजारी अनायास सो कोई भी क्षेत्र उनकी सेवामों से अछूता न रह सका । गया, यह सुनकर मस्तिष्क में क्षण भर को यह प्रश्न कौंध उनके साथ उनकी सहधर्मिणी चतुर्मखी प्रतिभाशालिनी गया कि प्राजीवन सक्रिय रहने वाले जागरूक व्यक्ति को रमा जी का व्यक्तित्व भी संपूर्णतः उन्ही में विलय हो निद्रा कैसे मा गई ? तत्क्षण तथ्य उजागर हो गया कि यह एकाकार हो गया था। ऐसा मणि-काचन सयोग बिरले ही निद्रा नहीं चिर निद्रा है, जो अब कभी नही खुलेगी। दंपतियों को प्राप्त होता है। सृष्टि का अटल नियम है । जो पाता है, वह जाता है। जन्म द्रव्याभाव के कारण विपन्न परिवारों की प्रतिभाएं के साथ ही प्राणी मरण की पोर पैर बढ़ा देता है, अनजाने कुण्ठित हो विकसित हुये बिना ही नष्ट हो जाती हैं। यह ही। संसार ही परिवर्तनशील अस्थिर है तो उसमें प्रारूतु व्यक्तिगत विनाश नही, अपितु समाज का पतन है। इससे यात्री कैसे स्थिर रह सकता है ? यह अस्थिरता भी उस मानवता का अपकर्ष होता है। ऐसा अनुभव करते हुये ज्वलंत सत्य को उद्घटित करती है, जो प्राज तक एक उन्होंने छात्रवृत्तियों देने के लिये तत्काल ट्रस्ट स्थापित मबूझी पहेली बना हुप्रा है । संसार यात्रा का साथी शरीर कर इस महत् प्रभाव की पूर्ति की, जिससे हजारों नश्वर है। स्थिति समाप्त होते ही वह पिंड ब्रह्माण्ड में विद्यार्थी प्रशिक्षित हुये पौर हो रहे हैं। इच्छुक शिक्षितों बिखर जाता है, परंतु प्रात्मा यथावत है। शरीर के मिलने को साहू उद्योगों में नियुक्त कर प्राजीविका की विभीषिका से वह न अधिक होता है, न बिछडने से न्यूनता पाती है। से भी विमुक्त कर दिया। पह था उनका समाज-प्रेम । प्रत्यक्षतः अनेक शरीर जीणं होते तथा मृत्यु को प्राप्त इसीलिये वे समाज के प्राण स्वरूप थे। ज्ञान दान की होते देखे जाते हैं। उन शरीरों में श्रीमान् धीमान आदि महत्ता को उन्होने यथार्थत. प्राका था। कोई भी संज्ञा धारण करने वाली प्रात्माएँ विद्यमान रही ज्ञानपीठ, काशी सस्थान की सस्थापना कर लुप्त हो हों, किन्तु सभी शरीर कालधर्म से प्रछते रह चिरस्थायी रहे भनेक अनुपलब्ध प्राचीन ग्रंथों का एवं लोकोपकारी नहीं हुये । जो इस भेदविज्ञान को प्रात्मसात् कर लेता है, परिष्कृत मौलिक साहित्य का प्रकाशन कर वे सर्वसाधारण वह प्रात्मा इस पावागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है। को सुलभ किये । जैन कुलोत्पन्न होने से जैन साहित्य, दर्शन वे ही पूज्य एवं अनुकरणीय हैं, परंतु मुक्त होने के पूर्व जो के प्रति स्वभावतः प्राकर्षित थे ही; पर भारतीय भाषाएं यात्री अपने मानव जीवन की लघुतम यात्रा शुभ भाव व भी उन्हे प्रिय थी। फलत: ज्ञानपीठ, काशी के माध्यम से शुभ कार्यों के द्वारा सफल कर लेते है, वे धन्य है। ऐसे साहित्यकारों को उनकी सवोच्च सृजनात्मक साहित्यिक भाग्यवानों में थे स्वनामधन्य श्राबक शिरोमणि साहू शाति कृति पर उनके सम्मानार्थ, विश्वविख्यात नोबल पुरस्कार प्रसाद जी। की भांति मापने भी प्रतीकात्मक एक लाख रुपये पुरस्कार साहू जी देश के जाने-माने महान् उद्योगपति थे ही, स्वरूप देने की घोषणा कर, भारत मे नवीन परम्परा का परंतु सभी क्षेत्रों में उनका अधिकार था । वे उन श्रीमानों सूत्रपात किया। इस योजना के अंतर्गत प्रतिवर्ष विविध में से नहीं थे जो अपनी प्रांखें व बुद्धि को गिरवी रखकर भाषाभाषी सरस्वती-पुत्रो का सम्मान किया जा चुका है। केवल कानों से ही कार्य लेते हैं। वे कार्य करने के पूर्व उसे इस योजना की प्राधारशिला इतनी सुदृढ़ है कि भविष्य भली प्रकार बुद्धि की कसौटी पर कसकर क्रियान्वित करते थे में भी बिना किसी व्यवधान के सुचारुरूपेण साकार होती वे लक्ष्मीपति होकर भी पाजीवन सरस्वती के पुजारी रहे। रहेगी। उन्हें दोनों का समान रूप से वरदान प्राप्त था। अतएव ज्ञानपीठ की भांति प्रापके द्वारा संस्थापित साह जैन अपने जीवन में उन्होंने सामाजिक, धार्मिक मादि सभी ट्रस्ट, साहू जैन चेरीटेबल सोसायटी प्रादि अनेक संस्थाएं क्षेत्रों को तन-मन-धन से पूर्व सहयोग प्रदान किया। हैं, जो प्रापके कुशल संचालन में कार्यरत रही। इनके द्वार
SR No.538031
Book TitleAnekant 1978 Book 31 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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